सतरंगे पोस्टर
चिपका दिए हैं हमने
दुनिया के बाज़ार में
कि
हम आज़ाद हैं।

हम चीख़ रहे हैं
चौराहों पर
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
क्योंकि हमने भूख से मरते
क़र्ज़ के नीचे तड़पते
देशी हड़प-नीति के वातावरण में
एक-एक श्वास को तरसते
अपने भाई को देखा है।

अतः वस्त्रहीन स्वतन्त्रता को
धुली कमीज़ पहनाकर
हम प्रसन्न हैं।
पर हम
नहीं देख पाए
कॉलर के नीचे जमा मैल
जो शनैः-शनैः
खा रहा है कॉलर को
और जब अधिकांश खा जाएगा
भद्दी दिखेगी हमारी स्वतन्त्रता
और तब हम दौड़ पड़ेंगे
दर्ज़ी के पास
जो नयी लगाने के बहाने
काटकर फेंक देगा पूरी
और मुकर जाएगा नयी लगाने से
क्योंकि वह देख चुका है
पिछली नयी का इतिहास
तड़प चुका है
उमस-भरी स्वार्थ की दोपहरी में
भटक चुका है
झूठे वादों के रेगिस्तान में

अतः मात्र
इतिहास के पृष्ठ की लकीर
और पत्थर की प्रतिमा
की क़ीमत में
अब कोई गोद सूनी नहीं होगी

स्वतन्त्रता
कितनी प्यारी चीज़ है
मलाई की कटोरी की तरह,
पर उसे घूर रही हैं
बग़ल में बैठी दुश्मन बिल्लियाँ
जिन्हें सिर्फ़
बन्दूक़ें नहीं मार सकतीं

घर में एक
मज़बूत प्यार का फन्दा भी चाहिए
जिसके अभाव में
हमारी आँखों के सामने
लुढ़क जाएगी मलाई की कटोरी
फाड़ देगी दुनिया
सारे रंगीन पोस्टर
और हम
सिर्फ़ सिर धुनेंगे
हमें पड़ेंगे पागलपन के दौरे
और आज ही की तरह
उस दिन भी हम चिल्लाएँगे
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं!

शरद बिल्लोरे की कविता 'ये पहाड़ वसीयत हैं'

किताब सुझाव:

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