कभी-कभी इस प्रांगण में
गांधी की ‘एकला चलोरे’ वाली लाठी की
ठकठक सुनाई पड़ती है,
किन्तु जब कान यथार्थ को परखते हैं तो
लगता है कि महान नेता का अभिनेता
विडम्बनापूर्ण ठिठोली कर रहा है
और जनता उसे सच मानकर
छलना का नेतृत्व स्वीकार लेती है।
मेरा देश कितना सरल और भोला है!

अब मैं सपनों को किन तन्तुओं से बुनूँ?
ताना-बाना टूट जाता है।
गांठों से भरा सपनों का पट यदि बुन भी लिया जाए
तो क्या स्वर्णिम यथार्थ के बीज
उसमें अंकुआ पाएंगे?

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