‘Maa Ka Chehra’, a poem by Anupama Mishra
आँखें उसकी और बड़ी हो गईं
जब देखा रंग-बिरंगा लहँगा,
किनारों पर जिसके लगे हुए थे
सुर्ख़ सुनहले रंग के गोटे,
उन गोटों में आँखों को चौंधिया
देने जितनी चमक भरी हुई थी।
लहँगे के बीच में बूटियाँ थीं छोटी-छोटी,
बूटियों में कढ़ाई कौन-सी थी
इससे अनजान थी वो,
पर मन उसका उस लहंगे को
पा लेने की कल्पना मात्र से
लहराता रहा।
रास्ते भर वो सोचती रही,
उस लहँगे का रंग समायोजन,
जो धूप में कुछ ज़्यादा चटकीला और
छाँव में सुनहला रंग बिखेर रहा था।
इसी सोच में, पाँव के नीचे
आया पत्थर भी दिख न सका उसे
और वो गिर पड़ी बेतरतीब,
पत्थर पर पड़े घुटने ने उसके
एक पतली-सी खून की धारा के लिए
स्त्रोत सा बना दिया।
ख़ैर, संकरी, अँधेरे से भरी गलियों से
गुज़रते हुए, नुक्कड़ को पार करते हुए,
पास में ही पकती हुई चाय की
गुलाबी महक को चखते हुए,
तो कहीं हल्की भूरी तली जाती हुई
कचौरियों के फूलते हुए,
सौंदर्य को आत्मसात करते हुए,
और इन इत्रित सुगंधों से कुरेदती हुई
क्षुधा को अनदेखा करते हुए,
लहँगे को याद करती हुई वह,
बड़े ही पुराने काले दरवाज़े के सामने आकर
अचानक रुक सी गई,
फिर बड़े हल्के हाथों से दरवाज़े पर दी दस्तक,
जैसे डरती हो, उस जर्जर दरवाज़े के टूट जाने से
और बिखर जाने से घरौंदा अपना,
वो इंतज़ार करती रही,
दरवाज़े के उस पार,
खाँसती हुई माँ के दरवाज़े तक आने का।
जब खुला दरवाज़ा तो भागकर
पटक दी कूड़े से भरी
बोरी, कंधे से अपने,
और रास्ते भर याद की हुई
लहँगे की बात करना ही भूल गयी,
क्योंकि माँ का चेहरा
उस लहँगे से
ज़्यादा प्यारा था।