शहर लॉकडाउन, सरकारें ट्वीटर पर
मीडिया अपने आक़ाओं के यशोगान में
सड़क पर पुलिस अपनी नौकरियाँ बचाने में
उनके पास रोज़गार नहीं बचे थे
उन्हें भूख लगती थी
गर्भवती महिलाएँ थी
दुधमुँहे बच्चे थे
सर के ऊपर छत नहीं थी
एक पैर में जूते, दूसरे में चप्पल थे
जिस शहर को उन्होंने बरसों-बरस
अपने हाड़-माँस से तैयार किया था
वह शहर अब उन्हें नहीं पहचानता था
उन्हें घर जाना था
और पैदल जाना था
सैंकड़ों-सैंकड़ों घण्टे
हज़ारों-हज़ार किलोमीटर
रेल की पटरियाँ सहारा थीं
उन्हीं के सामानान्तर चलना था
उन्हीं के इर्द-गिर्द सोना था
पैर के छालों को सहलाना था
अख़बार ने छापा
दो हज़ार बीस की आठ मई
सुबह क़रीब पाँच बजकर बाईस मिनट
मालगाड़ी की चपेट में आए सोलह लोग
वे मज़दूर थे
एकदम जाहिल, गँवार
उनकी कोई क्लास नहीं थी
बावजूद इसके उनके जान की क़ीमत
पाँच-पाँच लाख रुपए तय की गयी है
और सम्मान में उनके शवों के टुकड़ों को
विशेष हवाई जहाज़ से उनके घर तक
सकुशल पहुँचाया जाएगा
वे मज़दूर थे
महज़ मजदूर ही तो थे…