कहाँ कुछ बदला शहर में,
सब कुछ वैसा ही तो है
जैसा छोड़ा था कभी,
सड़कें आलसी-सी
बोझ से दबी,
मोड़ वैसे ही सुस्त और
कटीले,
हवाएँ उतनी ही शोखी से
दुपट्टे सम्भालती हैं,
ज़रा-सी बारिश ख़राब कर देती है
आज भी गलियों के गले,
हाँ बस,
शहर के बीच चौक पर
बढ़ गई है,
बिकते कामगारों की भीड़,
चाय की दुकानें ज़रा ज़्यादा
राजनीतिक हो गई हैं,
स्कूलों से बच्चे नहीं
इक होड़ लौटती है यहाँ भी,
कल, आज और कल सब एक शक्ल के
बस उम्र का फ़र्क़ दिखता है
बड़े शहरों की जूठन-भर
तस्वीर बदली है,
मेरे छोटे से शहर की।

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