कमरे के कोने में इक बोरी है
बोरी में कचरे का ढेर है
कचरे के ढेर में कुछ किताबें हैं
मैं चाहता हूँ जलाना, किताबें
बोझिल कमरे को हल्का कर देना
उन जलती हुई किताबों में पकाना, आलू
और भोर तक खाना
बोरी खुलते ही किताबों का ढेर लग जाता है
किताबों के ढेर में – एक श्याम वर्ण बूढ़ा है
गाल धँसे हैं पर आँखों में संसार की सारी कविता है
कौन है? कहाँ से है? नहीं मालूम!
मैं उसे नहीं जानता
पर वो मुझे जानता है
कहता है – मेरे सजल उर शिष्य!
तुमने सिगरेट पीनी छोड़ दी (!)
मैं भी नहीं पीता।
जेब से दो बीड़ी निकालता है
(माचिस की ओर इशारा करता है)
एक फूँकने लगता है
एक मुझे देता है
मैं हिचकिचाता हूँ, वो मुस्कुराता है
जेब में फिर हाथ डालता है
एक बंडल बीड़ी मेरी नज़र करता है
मैं चोर की तरह इधर-उधर देखता हूँ
हड़बड़ाकर अपनी जेब में रख लेता हूँ
वो बीड़ी के धुएँ में कहीं खो जाता है
मैं माचिस ढूँढता हूँ
मुझे स्मरण होता है – माचिस तो उसे सौंप दी
मैं वापस जेब टटोलता हूँ
मेरी जेब भी ख़ाली है
और हाथ आती है उसकी अध-जली बीड़ी
मैं भोर तक पके आलू खाता हूँ
पर किताबें नहीं जलाता।