सरकार का पटवारी गाँव आता
खीर-पुएँ खाता,
अनपढ़ किसानों की ज़मीनों को
अपने थैले में रखे होने की धमकियाँ देता
जैसे कि उसने वश में कर लिया हो
गाँव का सारा भूगोल।

पिताजी अक्सर कहा करते थे,
तू पटवारी बन जाता तो, अच्छा होता
बची रहती हमारी पुश्तैनी ज़मीन
बची रहती हमारे पुरखों की लाज।

बेटा, सौ रुपये के नोट को
दो आने की चीज़ के लिए खुल्ला नहीं करवाते।
उस सौ रुपये के नोट को
ज़मीन बचाने के एवज़ में
ले गया पटवारी।
इस बचाने के चक्कर में,
खो दिया हमने सब कुछ
बचने के नाम पर बचे रह गए हैं सिर्फ़ आँसू
जिनसे भीगती रहती है
हमारी आत्मा की ज़मीन।

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