हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे
आज धरा पे कष्ट बड़ा है
अंत बड़ा नज़दीक खड़ा है
उसका आना रोको रे
हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे
ऊबड़-खाबड़ ऊसर भूमि
रक्त से सिंचित बंजर भूमि
कलियुग की ये दूभर भूमि
इस पे बैर की चट्टाने हैं
उनको ठेल के ठोको रे
हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे
सूरज का परकोप घना है
आसमान में बांध बना है
वायु का वर्जित बहना है
बादल की तुम राह न ताको
ऊपर को न देखो रे
हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे
मानवता के मान में उट्ठो
नारी के सम्मान में उट्ठो
कौन हो तुम पहचान के उट्ठो
ऊँच-नीच के कंकर पत्थर
चुन-चुनकर तुम फेंको रे
हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे
धरती जब कोमल हो जावे
समदर्शी समतल हो जावे
श्रापित से मंगल हो जावे
इसके दिल के भीतर जाकर
बीज प्रेम का रोपो रे
हलधर धरती जोतो रे
हलधर धरती जोतो रे!
पंकज सिंह की कविता 'वह किसान औरत नींद में क्या देखती है'