‘Phobia’, a poem by Mukesh Kumar Sinha

जब भी उछालो सिक्का
तो दिखने वाला हेड या टेल ही होता है विजयी
नहीं नजर आ पाता छिपा हुआ दूसरा फ़लक
हुर्रे की आवाज़ आती है सिर्फ़ विक्ट्री के लिए
जिंदगी के तमाम हॅप्पीनेस इंडेक्स के साथ
जब भी होता हूँ किसी के सामने
तो मंद मुस्कान के साथ कह देते हैं
अच्छे लगते हो आप, अच्छे हो आप!
कहाँ नज़र आता है
पीठ पर बंधा बैक-पैक
जिसमें लादे चलते हैं
दर्द, वितृष्णा, कुछ खुशियाँ भी, साथ ही अजीबोगरीब फ़ोबिया
जो ज़िन्दगी के बरक्स चलता है

हर शख़्स लादे हुए है डर
जो, ज़िन्दगी भर चलता है समानान्तर
पर यही डर कछुए सा चलता हुआ
कब वजूद को डराते-डराते
फँसा लेता है फ़ोबिया में,
कहाँ समझ आता है

लम्बी दूरी के ट्रेन सफ़र के दौरान
एसी3 के बी2 डब्बे में 11 नम्बर स्लीपर बर्थ पर
चढ़ कर लेटा ही था कि
नियत समय के साथ भक्क से हुई लाइट ऑफ
और फिर तो ट्रेन का डब्बा
बदल चुका था ब्लैक होल में
और मैं किसी आकाशीय पिंड सा
बिना किसी कक्षा के लगा रहा था चक्कर,
गुरुत्व बल-विहीन उस विचरण को
कैसे करूँ बयान
कैसे बताऊं उस एवियोफ़ोबिया के हमले को
बस पलक झपकाते हुए
जलती मताई आँखों के साथ
बीत गई पूरी रात, कोच के बाहर
जैसे शरीर को छोड़कर निकल चुकी आत्मा

देर रात थामे किताब, पढ़ने के बहाने
करते थे उपाय
अंधेरे से बचने का
आख़िर अंधेरे में बंद आँखों के सामने
बनता गोला, गोले पर गोला
जैसे सोई हुई समय की झील की
हिल रही हो पुतलियाँ
किसी दुहस्वपन को जीते हुए
बेरंग से रंगीन होते हुए
उन गीले चमकदार छल्लों को सम्भाले
ज़िन्दगी की बेतुकी ज़िद
पेनोफ़ोबिया
नेक्टोफ़ोबिया की कई तहें
ऐसे पार करता हुआ, जैसे
मोबाइल गेम ‘ब्लू व्हेल’ के आत्मघाती प्रयासों के कई स्तरों से
गुज़रते हुए एक अजीब सी बेचैनी
जो न जागने देती न देती सोने
रेंगती रहती है ज़िन्दगी
घोंघे की गति से
लिजलिजे अंधेरों को समेटे आत्मविश्वास के धूसर खोल में

और पीठ पर बंधे बैकपैक में
सहेजे फ़ोबिया के गुच्छे
अनुभवों के परभक्षी बन कर,
चिपके रहते हैं मानस की सतह से
जैसे चिपकी होती है
शरीर से यग्योपवीत की सफ़ेद डोर
जैसे लदी है कछुए के शरीर पर
भारी भरकम बाहरी खोल
आख़िर बचें तो बचें कैसे
किस साइकेट्रिस्ट को कहें कि
छुड़ाओ ऑक्टोपसी बाहुपाश के चंगुल से

ख़ैर, पीठ पर लदा फ़ोबिया का बैक-पैक
कब तक होगा असहनीय
जीते हुए जुटे हैं इसी को जानने में!

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