Poems: Gaurav Bharti

अख़बार

वेंडर
सुबह-सुबह
हर रोज़
किवाड़ के नीचे से
सरका जाता है अख़बार

हाथ से छूटते हुए
ज़मीं को चूमते हुए
फिसलते हुए
अख़बार
एक जगह आकर ठहर जाता है
इंतज़ार में

अख़बार
इश्तहार के साथ-साथ
अपने साथ ढोता है
एक विचारधारा
जिसे वह बड़ी चालाकी से
लफ़्फ़ाज़ी से
पाठकों तक छोड़ जाता है

पढ़ने से पहले
राय बनाने से पहले
ज़रा ठहरिए
हो सकता है
आप दुबारा छले जाएँ
पिछली बार की माफ़िक,
जब आप बाज़ार से
वह सामान उठा लाए थे
महज़ इश्तहार देखकर…

मानकीकरण

मेरे शब्द
कई संस्थानों से होकर गुज़रेंगे
उसके हर्फ़-हर्फ़ को कई बार पढ़ा जाएगा
और हर पाठ के साथ
अर्थ की सघनता ख़त्म होती चली जाएगी

शब्द छाँट दिए जाएँगे
वाक्य-विन्यास तोड़े जाएँगे
शब्दों के क्रम बदल दिए जाएँगे
नुक़्ते हटा दिए जाएँगे

मानकीकरण के इस युग में
बहुत मुश्किल है
आश्वस्त होकर बैठ जाना
और यह मान लेना कि
मेरे शब्द तुम तक वही अर्थ सम्प्रेषित करेंगे
जिसे मैंने तुम्हारे लिए गढ़ा है…

देवदास

सुनो! देवदास
माना कि तुम
मोहब्बत के मुहावरे बन चुके हो
लेकिन तुम्हारा किरदार
मुझे बिल्कुल पसंद नहीं
बिल्कुल भी नहीं

तुम्हें पता है
पारो का दर्द
उसकी बेबसी
उसका बंधन
उसका तिल-तिल कर मरना
नहीं, तुम्हें नहीं पता
समाज में औरत होना क्या होता है…

तुम्हें नहीं पता
जब एक उँगली
उठती है
किसी स्त्री के चरित्र पर
तब बिना सोचे-समझे आदतन
हज़ारों चरित्रहीन
अपनी गंदी उँगलियों से
हवसी निगाहों से
उस स्त्री को नंगा करने में जुट जाते हैं
यह जानते हुए भी कि
वह ख़ुद कितना खोखला,
कितना नंगा है

कहते हैं
मोहब्बत मुक्ति है
लेकिन तुमने कभी पारो को मुक्त किया
आज भी नहीं
आज तक नहीं
पारो क़ैद है
तुम्हारे नाम के साथ
जहाँ तुम्हारे नाम को
तुम्हारे किरदार को
गाया जाता है,
ख़ूब मिलती है तालियाँ,
वहीं पारो के हिस्से आती है
शिकायतें, उलाहने
और एक ऐसा दर्द
एक ऐसी पीड़ा
जो पता नहीं कब तक मिलती रहेगी…

जो कुछ तुमने
मोहब्बत के नाम पर किया
यक़ीं मानो
वह तुम्हीं कर सकते थे
क्योंकि तुम्हारे पास थी एक विरासत
जिसका चाहो न चाहो
तुम हिस्सा थे
लेकिन उससे पूछो
जिनके पास ऐसी कोई विरासत नहीं
वह तुम्हारी तरह देवदास नहीं बन सकता
नहीं ओढ़ सकता
वह लिबास जो तुम छोड़ गए हो
वह मुहावरा जिसमें तुम अब भी ज़िन्दा हो

क्योंकि –
उसकी ज़िन्दगी से जुड़ी हैं कई ज़िन्दगी
तुम्हारी तरह वह मर भी नहीं सकता
क्योंकि वह जानता है
उसके मरने से
कितने ख़्वाब मर जाएँगे
कितनी आँखें पथरा जाएँगी
इसलिए वह मरने से बहुत डरता है
कभी गर ख़्वाब में भी वह ख़ुद को मरता हुआ पाता है, तो
नींद को ठोकर मार उठता है
और रसीद करता है
ज़ोरदार दो-चार तमाचे ख़ुद से ख़ुद के गाल पर
ताकि उसे तसल्ली हो जाए कि वह ज़िन्दा है
और उसके साथ ज़िन्दा हैं
कुछ ख़्वाब…
उसी तरह जैसे
एक किसान को
अपनी हरी-भरी फ़सल देख कर होती है…

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Recommended Book:

गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408