Poems: Vivek Chaturvedi
उस दिन भी…
नहीं रहेंगे हम
एक दिन धरती पर
उस दिन भी खिले
हमारे हिस्से की धूप
और गुनगुना जाए
देहरी पर चिड़िया आए
उस दिन भी और
हाथ से दाना चुग जाए
आँगन में उस दिन
न लेटे हों हम
पर छाँव नीम के पेड़ की
चारपाई पर झर जाए
शाम घिरे उस दिन भी
भटक कर आवारा बादल जाएँ
मिट्टी को भिगा जाएँ
नहीं रहेंगे हम एक दिन…
पर उस दिन भी।
ऊन
मौसम की दुल्हन
आख़िर बुनने लगी
गुनगुनी धूप का स्वेटर
धुन्ध में, सुबह की सलाइयों से
कुछ फन्दे गिरे, टूटे फिर सम्भल गए
बन ही गया एक पूरा पल्ला
दोपहर की धूप का
सूरज का नर्म ऊन
उँगलियों की छुअन से
बासन्ती हो गया।
भोर उगाता हूँ…
नहीं जाता अब सुबह
मन्नतों से ऊबे, अहम् से ऐंठे
पथरीले देवों के घर
उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
और कुछ बच्चों के लिए
इक भोर उगाता हूँ।
माँ को ख़त
माँ! अक्टूबर के कटोरे में
रखी धूप की खीर पर
पंजा मारने लगी है सुबह
ठण्ड की बिल्ली…
अपना ख़याल रखना माँ!
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