ज़हन में तेरे उलझे, सुलझ जाऐ ‘प्रहेलिका’
कुछ यकीन दिला, कोई कवायद तो कर।
तब्दील ‘घर में’ ‘दिल का मकां’ कर जाऐ,
तू ईंटो की, पत्थरों की, हिफाजत तो कर।
हैं बेहिसाब कीमती, फकीरी उल्फत की,
कि तेरे दाम में थोड़ी-सी गिरावट तो कर।
अभी भी वक्त हैं, महशर की रात आने में,
तू मगरूरियत से अपनी बगावत तो कर।
इब्तिदा-ऐ-इश्क में ‘बोसे’ को ‘रस्म’ कहता है,
तू रिवाजों को निभाने की रवायत तो कर।
ये जीस्त मुसल्सल सी, टिकेगी कब तक,
मेरे मालिक मेरे काविश की फ़राग़त तो कर।
मुझे है इल्म, तुझे इश्क की दरकार नहीं,
खैर तू इश्क न कर, बदस्तूर दिखावट तो कर।
M so thankful to you for approving my poetry.