दूर से चल के आया था मैं नंगे पाँव, नंगे सर
सर में गर्द, ज़बाँ में काँटे, पाँव में छाले, होश थे गुम
इतना प्यासा था मैं उस दिन जितना चाह का मारा हो
चाह का मारा वो भी ऐसा जिस ने चाह न देखी हो

इतने में क्या देखा मैंने एक कुआँ है सुथरा-सा
जिसकी मन है पक्की ऊँची, जिस पर छाँव है पेड़ों की
चढ़कर मन पर झाँका मैंने जोश-ए-तलब की मस्ती में
कितना गहरा, इतना गहरा, जितनी हिज्र की पहली रात
कैसा अंधा, ऐसा अंधा, जैसी क़ब्र की पहली रात

कंकर ले के फेंका तह में
पानी की आवाज़ न आयी
उस का दिल भी ख़ाली था..

Previous articleक्षमा-याचना
Next articleयतीम औलादें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here