लोहे के पैरों में भारी बूट
कंधों से लटकती बंदूक़
क़ानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डालकर हाथों में
तमाम ताक़त से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुज़रेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीज़ों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, ग़लत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा
मज़दूरों पर गोली की रफ़्तार से
भुखमरी की रफ़्तार से किसानों पर
विरोध की ज़ुबान पर
चाक़ू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए ख़ून की
व्याख्या क़ानून से परे कहा जाएगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
ख़ौफ़ बनकर समा जाएगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ़्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाज़ा खटखटाएगा
तो फिर समझिए कि आपका
पता नहीं चल पाएगा
ख़बरों से इसे मुठभेड़ कहा जाएगा
पैदा होकर मिल्कियत की कोख से
बहसा जाएगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमकाकर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जाएगा क़ानून
जब तक तमाम ताक़त से
तोड़ा नहीं जाएगा।

गोरख पाण्डेय की कविता 'समझदारों का गीत'

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