मिरी मस्ती में भी अब होश ही का तौर है साक़ी
तिरे साग़र में ये सहबा नहीं कुछ और है साक़ी

भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग सी दिल में
ये कैसे जाम हैं साक़ी ये कैसा दौर है साक़ी

वो शय दे जिस से नींद आ जाए अक़्ल-ए-फ़ित्ना-परवर को
कि दिल आज़ुर्दा-ए-तमईज़-ए-लुत्फ़-ए-जौर है साक़ी

कहीं इक रिंद और वामाँदा-ए-अफ़्क़ार तन्हाई
कहीं महफ़िल की महफ़िल तौर से बे-तौर है साक़ी

जवानी और यूँ घिर जाए तूफ़ान-ए-हवादिस में
ख़ुदा रक्खे अभी तो बे-ख़ुदी का दौर है साक़ी

छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना
तिरे शादाब होंटों की मगर कुछ और है साक़ी

मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जाम-ए-लालीँ में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साक़ी

मजाज़ लखनवी
मजाज़ लखनवी (पूरा नाम: असरार उल हक़ 'मजाज़', जन्म: 19 अक्तूबर, 1911, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश; मृत्यु: 5 दिसम्बर, 1955) प्रसिद्ध शायर थे। उन्हें तरक्की पसन्द तहरीक और इन्कलाबी शायर भी कहा जाता है। महज 44 साल की छोटी-सी उम्र में उर्दू साहित्य के 'कीट्स' कहे जाने वाले असरार उल हक़ 'मजाज़' इस जहाँ से कूच करने से पहले अपनी उम्र से बड़ी रचनाओं की सौगात उर्दू अदब़ को दे गए शायद मजाज़ को इसलिये उर्दू शायरी का 'कीट्स' कहा जाता है, क्योंकि उनके पास अहसास-ए-इश्क व्यक्त करने का बेहतरीन लहजा़ था।