Tag: Chandrakant Devtale
अपने को देखना चाहता हूँ
मैं अपने को खाते हुए देखना चाहता हूँ
किस जानवर या परिन्दे की तरह खाता हूँ मैं
मिट्ठू जैसे हरी मिर्च कुतरता है
या बन्दर गड़ाता है...
पुनर्जन्म
मैं रास्ते भूलता हूँ
और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं
मैं अपनी नींद से निकलकर प्रवेश करता हूँ
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता...
स्त्री के साथ
मैं आकाश में इतने ऊपर कभी नहीं उड़ा
कि स्त्री दिखायी ही न दे
इसलिए मैं उन लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता
कि वे किस तरह...
तुम्हारी आँखें
ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें
मुझे देख रही हैं
और जैसे झील में टपकती हैं ओस की बूँदें
तुम्हारे चेहरे की परछाईं मुझमें प्रतिक्षण
और यह सिलसिला...
तुम वहाँ भी होंगी
अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूँगा
तहक़ीक़ात के लिए
यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं...
घर में अकेली औरत के लिए
तुम्हें भूल जाना होगा समुद्र की मित्रता
और जाड़े के दिनों को
जिन्हें छल्ले की तरह अँगुली में पहनकर
तुमने हवा और आकाश में उछाला था,
पंखों में बसन्त...
एक सपना यह भी
सुख से, पुलकने से नहीं
रचने-खटने की थकान से सोयी हुई है स्त्री
सोयी हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी
अब पड़ी पसरकर
मिलता जो सुख वह...
मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए
मेरे होने के प्रगाढ़ अन्धेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से
कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम...
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती...
माँ जब खाना परोसती थी
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था,
वे दिन अथाह कुएँ में छूटकर गिरी
पीतल की चमकदार...
अन्तिम प्रेम
हर कुछ कभी न कभी सुन्दर हो जाता है
बसन्त और हमारे बीच अब बेमाप फ़ासला है
तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुन्दर हो
जो बिना...
औरत
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दिशें से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और...