सुख से, पुलकने से नहीं
रचने-खटने की थकान से सोयी हुई है स्त्री
सोयी हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी
अब पड़ी पसरकर
मिलता जो सुख वह जागती अभी तक भी
महकती अँधेरे में फूल की तरह
या सोती भी होती तो होठों पर या भौंहों में
तैरता-अटका होता
हँसी-ख़ुशी का एक टुकड़ा बचा-खुचा कोई
पढ़ते-लिखते बीच में जब भी नज़र पड़ती उस पर कभी
देख उसे ख़ुश जैसा बिन कुछ सोचे
हँसना बिन आवाज़ में भी
नींद में हँसते देखना उसे मेरा एक सपना यह भी
पर वह तो
माथे की सिलवटें तक नहीं मिटा पाती
सोकर भी…
चन्द्रकान्त देवताले की कविता 'मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए'