रात एक बजे का समय। तीर्थ बाबू की नींद टूट गयी। टेलीफ़ोन बज रहा था। आधी रात में टेलीफ़ोन बजने से क्यों इतना डर लगता है?
“हैलो। सुनिए… अस्पताल से बोल रहा हूँ…आपका पेशेंट अभी-अभी मर गया। हैलो।…”
“हमारा पेशेंट? हमारा कोई पेशेंट अस्पताल में नहीं है।”
“आपका नम्बर?”
“रॉन्ग नम्बर! टेलीफ़ोन रख दीजिए।”
ये लोग रॉन्ग नम्बर पर फ़ोन करते ही क्यों हैं? तीर्थ बाबू ने फ़ोन उतारकर नीचे रख दिया। डर लगता है, बहुत डर लगता है।
“अचानक फ़ोन क्यों बजने लगता है? इतना रॉन्ग नम्बर क्यों होता है?” सविता पूछती है।
काफ़ी दिनों से सविता या तीर्थ बाबू रात गये तक सोते नहीं। ठीक बारह बजे रात को तीर्थ बाबू नींद की एक गोली खाते हैं। गोली खाकर आँखें मूँदकर लेट जाते हैं और चिंताओं को मन से दूर करने की चेष्टा करते हैं।
कर नहीं पाते। लाख कोशिश करके भी चिंताओं को मन से हटाने में तीर्थ बाबू सफल नहीं हो पाते। उनकी चेतना और अवचेतना, प्रथम स्तर की चेतना और अतल स्तर की चेतना, प्रत्येक के बीच में सीधी दीवारें उठ खड़ी होती हैं। उन दीवारों पर पोस्टर चिपके होते हैं।
दीपंकर की तस्वीरें, बचपन का दीपंकर, घुटा हुआ सिर, भोला-भाला चेहरा। मैट्रिक पास दीपंकर। ग्रैजुएट दीपंकर। लम्बा छरहरा शरीर, भावुक और शांत चेहरा।
दीपंकर! तीर्थ बाबू का एकमात्र लड़का। संतान, संतान! आदमी संतान की चाहत क्यों करता है? संतान को प्यार क्यों करता है? तीर्थ बाबू रोज़ ही यह प्रश्न अपने से करते हैं।
फिर नींद आती है। गहरी, फिर भी घबराहट और आतंक में डूबी हुई नींद। लगता है सविता अभी भी नहीं सोयीं। इसीलिए वे पूछती हैं, “किसका फ़ोन है?”
“रॉन्ग नम्बर है।”
“कहाँ से आया था?”
“अस्पताल से।”
“अस्पताल से? सुनो जी। कहीं हमारा ही फ़ोन न हो?”
“पागलपन तो करो मत सबू। तुम जानती हो दीपू नीरेन के पास है। वहाँ से वह नीरेन को दिल्ली में भर्ती कराने की कोशिश कर रहा है। सब कुछ जानकर पागलपन क्यों करती हो?”
“नीरेन के पास अगर होता, तो दीपू हमें चिट्ठी क्यों नहीं लिखता? नीरेन हमें चिट्ठी क्यों नहीं लिखता? क्या तुम लोग सोचते हो कि मैं रोऊँगी-गाऊँगी? दौड़कर नीरेन के पास चली जाऊँगी?”
“सबू, घबराओ मत।”
“मुझे लगता है दीपू नीरेन के पास नहीं है। नीरेन जानबूझकर हमें कुछ नहीं बता रहा है?”
“चुप करो सबू, रोओ मत। सब ठीक हो जाएगा। तुम तो जानती हो, दीपू के भाग जाने का कोई कारण नहीं है।”
“तो फिर वह आता क्यों नहीं?”
“सबू! बीमार रहते-रहते तुम्हारा दिमाग़ भी कमज़ोर पड़ गया है। समय बहुत ख़राब है। हमारा इलाक़ा भी कोई अच्छा इलाक़ा नहीं है, इसीलिए वह नहीं आता।”
सविता अब रोना शुरू कर देती है, धीरे-धीरे, बिसूर-बिसूरकर। रोते-रोते ही एक समय सविता की आँख लग जाती है। तीर्थ बाबू को नींद आने में देर होती है। क्या हो गया इस देश को! अच्छा। रोगी अगर मर जाए तो टू-थ्री एक्सचेंज का नम्बर देने पर फ़ोर-सैवन पर तुम लोग फोन करना? रॉन्ग नम्बर। जिनका वह रोगी होगा, उनके मन की हालत क्या होगी?
या फिर, शायद कोई हालत ही न हो। आजकल लगता है सभी कुरूक्षेत्र के अर्जुन जैसे हो गए हैं, मृत्यु को अत्यंत वैराग्यभाव से लेते हैं। शायद लाशें बिस्तरों पर ही पड़ी रहती हैं। ख़र्चा बचाने के लिए रिश्तेदार वहाँ से फूट लेते हैं, लौटकर आते ही नहीं। या शायद एयरकंडीशंड मुर्दाघर में पड़ी रहती हैं। उन्हें कोई देखने भी नहीं आता।
तीर्थ बाबू को डर लगता है, यूँ ही अकारण डर लगता है। उन्हें लगता है, जिस कलकत्ता में, जिस पश्चिम बंगाल में वह रहते हैं, वह कोई और कलकत्ता है, कोई और पचिम बंगाल। देखने से लगता है वही शहर है, वही बड़ा मैदान, मॉन्यूमेंट, भवानीपुर, अलीपुर, चड़कडांगा का मोड़। आषाढ़ में पहले जैसा ही रथों का मेला, चैत्र में कालीघाट की भीड़ और माघ में बड़े दिन की रोशनी।
नहीं, यह वह शहर नहीं है। यह एक ग़लत शहर है। रॉन्ग सिटी। ग़लत ट्रेन में चढ़कर ग़लत शहर में आ गए हैं तीर्थ बाबू।
वरना, सविता को दिए गए सारे प्रबोधनों को भूलकर तीर्थ बाबू सोचते हैं, वरना दीपंकर चिट्ठी क्यों नहीं लिखता? क्यों नीरेन दीपंकर की कोई ख़बर नहीं देता?
क्यों, क्यों आदमी संतान चाहता है, क्यों बेटे को प्यार करता है, बेटी को प्यार करता है? इसलिए कि मरने पर वह उसके मुँह में आग देगा? रॉन्ग नम्बर। जब तक जीवित हैं तभी तक तो तीर्थ बाबू संतान को चाहते हैं। तू मेरे पास रह, तू मेरे निकट रह। मेरी यंत्रणा ले, मेरी ज्वाला ले, मेरा भाग्य ले। मेरे साथ एकाकार होना सीख।
रॉन्ग होप।
लगता है कहीं कोई एक्सचेंज है इस शहर में, इस शहर में वह एक्सचेंज कहाँ है? वहाँ पर बैठकर कौन तीर्थ बाबू से कहता जा रहा है रॉन्ग नम्बर! रॉन्ग सिटी। रॉन्ग होप।
वह कौन है? वह अदृश्य ऑपरेटर कहाँ है? वह ऑपरेटर दिखायी क्यों नहीं देता? सोचते-सोचते तीर्थ बाबू किसी पत्थर की तरह गुडुप से नींद में डूब जाते हैं। इसी तरह चलता है, दिन से रात, सोम से रवि और सवेरे से शाम तक सब कुछ। तीर्थ बाबू को रातों से डर लगता है, क्योंकि नींद में उन्हें दीवारों की क़तारों पर क़तारें दीख पड़ती हैं।
दीवार पर दीपंकर का चेहरा अंकित होता है। नींद में ही तीर्थ बाबू सोचते हैं—तो क्या वे मनोज के पास जाएँ? मनोज उनका मित्र है। वह एक मनोचिकित्सक भी है। निश्चय ही तीर्थ बाबू बीमार हैं।
“तुम्हें बीमारी है, तीर्थ!”
मनोज ने राय दी। वह लक्ष्य कर रहा था—तीर्थ बाबू का सूखा हुआ मुँह, कातर दृष्टि और बार-बार माथे का पसीना पोंछने की कोशिश।
“क्या बीमारी है?”
“नर्व की बीमारी है।”
“नर्व तो मेरा ठीक ही है, मनोज।”
“तुम्हारी चिन्ताएँ अजीब हैं।”
“अजीब!”
“तुमने क्या कहा है, लो सुनो।”
मनोज टेपरिकॉर्डर चला देता है। मनोज अपने रोगियों का वक्तव्य टेप कर लेता है। फिर उस पर विचार करता है। राय देता है। तीर्थ बाबू टेपरिकॉर्डर को देखते हुए मन ही मन पैसों का हिसाब कर रहे थे। तभी अचानक एक थका हुआ मद्धिम स्वर उन्हें सुनायी पड़ता है।
“मुझे लगता है, घर मेरा नहीं है। दरवाज़ा खटखटाने से कोई दरवाज़ा नहीं खोलेगा, क्योंकि मैं रॉन्ग एड्रेस पर आ गया हूँ। रास्ते में चलते हुए मुझे लगता है कि कलकत्ता अब कलकता नहीं रहा गया है। यह कलकत्ता नहीं है। बाहर का सब कुछ—मकान, दरवाज़ा, बड़ा मैदान, मॉन्यूमेंट—सब कुछ किसी और शहर के हाथ में थमाकर कलकत्ता कहीं भाग गया है। मुझे लगता है, इट इज ए रॉन्ग सिटी। कोई ज़रूरत नहीं थी फिर भी अपने को विश्वास दिलाने के लिए कि यह वही कलकत्ता शहर है, मैं एक दिन केवड़ा तल्ला गया था। दीवारों पर जो लिखा था उसे पढ़कर मैं समझ गया कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूँ। उस दिन मैंने स्वप्न देखा था…”
मनोज ने टेपरिकॉर्डर रोक दिया। फिर तीर्थ बाबू की तरफ़ देखा और बोला, “क्या सपना देखा था, तीर्थ?”
“बता नहीं सकता।”
“क्या सपना देखा था?”
“मुझसे मत पूछो मनोज, मुझसे मत पूछो। यह स्वप्न मैं अक्सर देखता हूँ।”
“इसी कारण मेरे लिए यह जानना ज़रूरी है।”
“नहीं मनोज।”
“तुम बीमार हो। स्वाभाविक है, तुम्हारा बीमार होना स्वाभाविक है…”
“क्यों? मेरे लिए बीमार होना स्वाभाविक क्यों है?”
“तुम्हारा लड़का तो….”
“हमारा लड़का क्या?”
“घर में नहीं है।”
“मनोज, मैं नहीं जानता तुमसे किसने बताया है। मेरा लड़का दीपंकर अपने कज़िन के पास लखनऊ में है। वहाँ से दिल्ली पढ़ने जाएगा दीपंकर।”
“ओह गॉड।”
मनोज जैसे बड़ी यंत्रणा और दुःख से बोलता है। उसके सीने में से एक लम्बी साँस बाहर आती है। तीर्थ को क्या हो गया है। उसके दोस्तों में से सबसे ठण्डे दिमाग़ वाला और सबसे अच्छा लड़का था तीर्थ।
“ओह गॉड।”
मनोज एक काग़ज़ पर दवा का नाम लिखता है। फिर काग़ज़ फाड़कर फेंक देता है और दवा की एक शीशी तीर्थ बाबू को देते हुए कहता है, “इसे रात में खा लेना, तीर्थ। नींद आएगी।”
“अच्छा । लाओ दो।”
तीर्थ बाबू दवा की शीशी लेते हैं और बाहर आ जाते हैं। मनोज दरवाज़े तक उनके साथ आता है, फिर कहता है, “तुम्हारे पास बोस तो फिर नहीं गया था?”
“नहीं, क्यों पूछ रहे हो?”
“मैंने उसे मना किया है।”
“तुम क्या समझते हो वह आए तो मैं उसे घर में घुसने दूँगा? बेकार में आकर सविता से आलतू-फ़ालतू बातें करता है।”
तीर्थ बाबू बाहर निकल आए। इस समय शाम हो रही है या सवेरा हो रहा है? सड़क पर क़तारों में लोग चले जा रहे हैं।
यहाँ के रास्ते एकदम फाँका पड़े हैं?
“निर्जन पथ… मेघावृता रजनी… आँधी-वर्षा… जयसिंह छुरी पर शान दे रहा है।”
रवीन्द्रनाथ की पुस्तक का यह वर्णन तीर्थ बाबू को बहुत अच्छा लगता था।
दीपंकर की पुस्तक में एक पाठ था—’राजर्षि’।
तीर्थ बाबू को लगा कि उनकी आँखों से टपटप पानी चू रहा है।
आजकल की संतान बड़ी घातक हो गयी है। हाँ, घातक हो गए हैं वे। माता-पिता की निश्चित हत्या करते हैं। तीर्थ बाबू दवा की शीशी को बड़े यत्न से हाथ में थामे चले जा रहे थे, जैसे वह ओलम्पिक की पवित्र मशाल हो।
आज रात नींद में तीर्थ बाबू ने फिर वही स्वप्न देखा। उन्होंने देखा कि चौरंगी में सड़क के दोनों ओर लाखों लोग खड़े हैं। वे सब पत्थर के बुत की तरह निश्चल हैं। सड़क की दोनों ओर बड़ी-बड़ी नियोन लाइट की सफ़ेद बत्तियाँ जली हुई हैं। सड़क के बीच में ढेर-सारा ख़ून फैला हुआ है। वहाँ खड़ी होकर एक प्रौढ़ा स्त्री दोनों हाथों से अपनी छाती पीट रही है। और ‘प्रवीर! प्रवीर! प्रवीर!’ कहकर विलाप कर रही है। उसके लम्बे केश खुले हुए हैं और उसके मुँह के इर्द-गिर्द लटक रहे हैं। स्त्री को देखकर तीर्थ बाबू समझ गए कि वह और कोई नहीं, पुराण में वर्णित जना है।
दूर-दूर भीषण प्रांतर में
मरूभूमि में, दुरंत श्मशान में—
यहाँ तेरा नहीं स्थान।
दुर्गम कांतार में, तुषारावृत,
चल पर्वत शिखरों पर
चल पापराज्य त्यज,
पति तेरा पुत्रघाती अराति का है साथी।
चल पुत्रशोकातुरा।…
स्त्री के विलाप से जैसे आकाश की छाती फट रही है। यही समय है—पर्दा गिरा दो। घंटी बजाओ। कौन चीख़ रहा है यह कहकर। किसने कहा यह माहिष्मतीपुर नहीं है। चले जाओ।
उसी क्षण तीर्थ बाबू कहना चाहते थे, “शी इज़ इन दि रॉन्ग सिटी।” मगर उसी समय घंटा बजने लगा—घन्न। घन्न। घन्न। घन्न।
घंटा बज रहा है। फ़ोन बज रहा है।
तीर्थ बाबू उठकर बैठ गए। आदमी टेलीफ़ोन क्यों रखता है? किराया देने में जीभ बाहर निकल आती है, साँस ऊपर की ऊपर रह जाती है जब?
तीर्थ बाबू ने रिसीवर उठाया।
“फ़ोर सेवेन… नाइन?”
ठीक यही नम्बर तीर्थ बाबू के सामने रखे टेलीफ़ोन के ऊपर लिखा है। तीर्थ बाबू ने कहा, “नो!”
“यह तीर्थंकर चटर्जी का घर नहीं है?”
“नो!”
“तीर्थ बाबू, यह मैं हूँ, बोस! हाँ। उस दिन मैंने जो कहा था। …दूर रेल लाइन के पास वाले घर में, हाँ! दीपंकर की लाश। डायड ऑफ़ इंजरीज। आप तो आए नहीं। बॉडी हैज़ बीन क्रिमेटेड। हैलो। सुन रहे हैं?”
“नो।”
“क्या यह तीर्थंकर चटर्जी का मकान नहीं है?”
“नहीं।”
“यह फ़ोर सैवन… नाइन नहीं है?”
“नहीं, नहीं, रॉन्ग नम्बर।”
तीर्थ बाबू ने फ़ोन नीचे रख दिया। फिर न जाने क्या सोचकर रिसीवर उठाकर रख दिया। उसके बाद जाकर बिस्तर पर लेट गए। फिर सपना देखना होगा। जैसे भी हो वह सपना एक बार और देखना ही होगा। स्वप्न देखने के बाद ही तीर्थ बाबू जान पाएँगे कि किस प्रकार उन्मादिनी जना रॉन्ग सिटी से भागी थी। सपने के अलावा आज तीर्थ बाबू के पास और कुछ भी नहीं है। जागकर कलकत्ता के रास्तों पर घूमने से एक भी निकल भागने का रास्ता तीर्थ बाबू खोज नहीं पाते। अब इन्हें जना के पीछे-पीछे जाना होगा। प्रवीर की मृत्यु के बाद, प्रवीर के बाप को लेकर सभी लोग जब विजयोत्सव में मग्न थे, तभी अकेली जना भाग गयी थी।
तीर्थ बाबू को नींद आ गयी।