मैंने दुःख झेले
सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखण्डी मुझको।
इतिहास यहाँ नक़ली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्यारों की रक्तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ।
कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अन्त नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी सम्पत्ति पर।
मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्कासित हूँ
प्रताड़ित हूँ।
इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखण्डी मुझको।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'मुठ्ठी भर चावल'