उड़ चले आकाश की गहराइयों में घूमने जब,
दिप्त इस ब्रम्हांड की परछाइयों को चूमने जब,
मन को मांजे राख से और रग में गंगा जल उतारे,
आँखों में अग्नि समाहित, पांव नभ तक हैं पसारे,
खोजता हूँ मैं परस्पर शून्य में भी आदियोगी,
मन ये बोले तन ये बोले आदियोगी आदियोगी।
तेज की अग्नि जले और भस्म के रंग में रंगे,
बन के गंगा आए कविता मन भगीरथ ये बने,
शब्दों की रुद्राक्ष का जप हर समय चलता रहे,
तन बदन में फैले शांति मौन आँखों से बहे,
वर्ण में भी, शब्द में भी, छंद में भी आदियोगी,
मन ये बोले तन ये बोले आदियोगी आदियोगी।