आसमान साफ़ होकर भी
धुंधलाया था।
पीड़ा के खंडित अवशेष
पाषाण नहीं होते हमेशा।

अनूदित पीड़ाएँ
लहलहाते खेतों में
बंजर अवशेष थीं।
सम्पन्नता में विपन्न जी रहीं
अधमरी फसलें…
अपुष्ट कुपोषित!

कलकल छलछल बहती
नदियों की धारा का प्रवाह
दोयम दर्जे की राजनीति का शिकार
हुआ।
मुहाने पर बंध गए बांध
आजीवन घुटती रही
तंग जीवन
बूँद-बूँद जल को
तरसती आत्मा…
सहती पीड़ा के अंतर्द्वंद्व।

मौन की
प्रच्छाया में अर्द्ध मूर्च्छित
एक जीवन।
पीड़ा की भीष्म प्रतिज्ञा के उत्तरायण होने
की निरंतर कर रही कामना…
दुःख की वैतरणी
धैर्य की गायों के साथ-साथ
और कितना चले।

जैसे पूस की रात के
स्वप्न में
जेठ की दुपहरी का
आना असम्भव था।

जीवन जीते हुए
सीखा गया।
महत्त्वपूर्ण चीज़ें भी
महत्त्वहीन होती हैं।

क्षुधा की दाह के समीप
कलाएँ निष्क्रिय अस्तित्वविहीन हैं।
कहरी में भूख से सटे पेट और
ऐंठती अंतरियों को चाँद की
बढ़ती-घटती कलाओं से कोई
सरोकार-सम्बन्ध नहीं होता।
कविताओं को बो देने से
ख़रीफ़ और रबी नहीं
उपजते।

चिलिका झील में
फ़्लेमिंगो और सारस के अद्भुत दृश्य
निहारने की कला भी
विलासिता के उपादान।
सूखी नदी
जल-बूँद से अधिक
नहीं सोच पाती।

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प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।

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