पीड़ा

ढल चुका है दिन
ढल गया
पुष्पों का यौवन…
अछोर आकाश में अब
चाँद ढल रहा धीरे-धीरे
डूब रहे हैं नक्षत्र
देखो!
रात ढल गई
आधी-आधी…

आयु ढल गई
ढल गए वे दिन
सहर्ष जिए थे जो मैंने
जिनका क्षय किया मैंने
सप्रयास
वे रातें ढल गईं
ढल गया सौभाग्य…

बस बिछौने पर पसरा
मेरा एकाकीपन
नहीं ढलता
स्मृतियाँ नहीं ढलतीं
नहीं ढलती क्षुद्रता
वक्रता नहीं ढलती भाग्य की…

इतना प्रयत्न करने पर भी
क्यों नहीं ढलती
यह पीड़ा!

नायिका

मैं भली-भाँति परिचित हूँ
अपने सूक्ष्म अस्तित्व से
मेरी तुलना ब्रह्माण्ड की मंदाकिनियों से न करें

मेरी आयु में उन अनुर्वर अंतरालों को न जोड़ें
जब मैं भाषा सीख रही थी

मेरे चींंटी प्रयासों पर प्रश्नचिह्न न लगाएँ
कर्मठता को ठेस पहुँचती है मेरी

मैंने स्वयमेव चुना है
निष्ठा का निस्संंग मार्ग
मदद का हाथ बढ़ाकर मुझे शर्मिन्दा न करें

कृपया अनुचित नामों से न पुकारें मुझे
कुछ वर्जनाओं को सायास ठेल रही हूूँ
नर्क के द्वार तक

देखिए एक मौक़ा दें मुझे
बित्ते-भर का भी संशय न पालें

मुझे विश्वास है अपनी उर्ध्वमुखी चेतना पर
अपने जीवन की नायिका मैं ख़ुद बनना चाहती हूँ…!

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