अर्थव्यवस्था की अवस्था के अर्थों की अर्थी सज रही है।

 

‘इको’नामी का ईको बचा नहीं और नामी बेनामी हो गई।

 

आने-पाई, चवन्नी-अठन्नी वाला ₹पया हज़ारी होकर भी डालर के कालर तक नहीं पहुँच पाया।

 

चीनी कम करके भी अमेरिका अमर नहीं हो पा रहा है।

 

रूबल यूरो जैसे हीरो भी ज़ीरो से जंग कर रहे हैं।

 

क्रूर क़ीमतों वाला क्रूड गहरे कुओं में कराह रहा है।

 

धरती के भीतर धातु और बाहर धान्य कोई धन्धे को कन्धा देने तैयार नहीं है।

 

महगाँई डायन, चांडाली ब्याज और कालेधन की चुड़ैल का काला जादू काम कर रहा है।

 

ग्रोथ के नये गणित-सूत्र मूड्स जैसे शेड्स से निर्विरोध निष्पादित हो रहे हैं।

 

लेकिन, लेकिन बहनों-भाइयों! आइये सूट-बूट की इस निराशा में छिपी आशा का बोली लगाकर अभिनंदन करें क्योंकि, क्योंकि हम ने शून्य में ज़ीरो नहीं अनंत खोजा है..!

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© मनोज मीक

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मनोज मीक
〽️ मनोज मीक भोपाल के मशहूर शहरी विकास शोधकर्ता, लेखक, कवि व कॉलमनिस्ट हैं.

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