अनुराग अनंत की कविता ‘आज़ादी’ | ‘Azadi’, Hindi poem by Anurag Anant
एक प्यास का जंगल है
जो पानी के रेगिस्तान पर उग आया है
फ़िदाइन मन गुज़र रहा है
ठहरे हुए समय की तरह
एक रास्ता है
जो माँ के दुलार से बम की आवाज़ तक फैला हुआ है
एक और रास्ता है
जो ख़ुद से शुरू होकर ख़ुद पर ख़त्म हो जाता है
मैं फ़लीस्तीन के किसी बच्चे की तरह
सपनों की अलमारी में
खिलौने और गुब्बारे रखकर आता हूँ
पर न जाने वो कैसे
बन्दूक़, बारूद और धुआँ हो जाते हैं
मुझे अफ़सोस होता है
जब मुझे मालूम पड़ता है
कि चेतना भिखारी की जूठन
वैश्या की नींद
मुर्दे के शरीर से उतरा हुआ कपड़ा हो चुकी है
और अब लोगों को उसके नाम से उल्टी आती है
सब डरा हुआ चेहरा लिए हँस रहे है
उड़ते हुए जहाज़ को देखकर
भाप हुए जा रहे है
और मैं ख़ून की नदी में
अपने बाप की लाश पर तैर रहा हूँ
माँ की चीख़ों के साज़ पर
भाई बहनों के आँसू के गीत गा रहा हूँ
मुझे साफ़ दिखायी दे रही है
लाशों के पहाड़ के उस पार
मेरी वो ज़मीन
जहाँ मैं बोऊँगा
अपने बाप के सपने
आपनी माँ की चीख़ें
भाई बहनों के आँसुओं के बीज
और काटूँगा आज़ादी की फ़सल
तब सारे प्यास के पेड़ गिरा दिए जायेंगे
पानी के रेगिस्तानों को जला दिया जायेगा
और बमों की आवाज़ के मुँह पर
एक ढीठ बच्चे की हँसी लिख दी जायेगी
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब क़ैदी परिंदों के पंख तलवार हो जायेंगे
और परवाज़ क़यामत
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब बच्चों के सपनों की अलमारी में
बन्दूक़, बारूद और धुएँ की जगह
खिलौने और गुब्बारे होंगे
जब उनकी नींद में
तेज़ाब नहीं बरसेगा
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब आज़ादी लिखने-पढ़ने की चीज़ नहीं
बल्कि जीने और महसूस करने की चीज़ होगी।
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