एक साथी ने उसकी परेशानी का कारण भाँप लिया था, “ऐसे नहीं उतरेगा मास्टर। आओ, तेल में धो लो”, कहकर उस साथी ने उसे अपने साथ चले आने का संकेत किया।
घटिया किस्म के कैरोसीन तेल में कुहनी-कुहनी हाथ डुबाकर दोनों ने अपने-अपने हाथों को मला। अब हथेलियों ओर बाँहों में लिपटी सारी चिकनी कालिख धुल गई थी, परंतु उसे लगा जैसे दोनों बाँहों में अदृश्य चीटिंयाँ रेंग रही हों। कैरोसीन तेल की गंध के कारण उसका जी मिचला उठा। इसी खीझ और गंध से मुक्ति पाने के लिए वह नल की ओर चल दिया।
अंतिम साइरन बज चुका था। पानी के प्रत्येक नल पर बीसियों कामगार घिरे हुए थे। कुछ लोग हाथों में साबुन मल रहे थे और शेष मल चुकने पर हाथों को पानी से धोने के लिए बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखकर सबकी अजनबी निगाहें उसकी ओर लग गयीं। एक-दो मजदूरों ने सौजन्य प्रदर्शन के लिए अपनी बारी आने से पहले ही उसे पानी लेने को बढ़ावा दिया। किंचित संकोच के बाद उसने आगे बढ़कर पानी ले लिया। यह संकोच स्वाभाविक था। अपनी बारी आने से पहले पानी लेने का प्रयत्न करने वालों को उत्साहित करने की इच्छा किसी के मन में न थी, यह वह दो क्षण पहले विभिन्न स्वरों में सुन चुका था।
परंतु उसे पानी लेते देखकर किसी ने आपत्ति नहीं की। एक बार हाथ अच्छी तरह धो लेने पर उसने उन्हें नाक तक ले जाकर सूंघा। कैरोसीन की गंध अभी छूटी नहीं थी। दुबारा साबुन से धो लेने पर भी उसे वैसी ही गंध का आभास हुआ, फिर एक बार और साबुन जेब से निकाल कर उसने हाथों में मलना शुरू कर दिया।
घासी रस ले-लेकर एक किस्सा सुनाने लगा और सारा समूह अपनी व्यस्तता भूलकर उसकी बात सुनता रहा।
एक गाँव के मेहतर की लौंडिया थी। उसकी शादी हुई शहर में। जैसा तुम जानो, गाँव के मेहतरों को तो कभी गंदा उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। नई-नई शहर में गई तो दिन-रात नाक चढ़ा कर अपने खसम से कहा करे- “बदबू आती है, बदबू आती है”। मालिक क्या करता! उसकी खातिर पेशा तो छोड़ नहीं सकता था। धीरे-धीरे लौंडिया भी काम पर जाने लगी। साल-छः महीने के बाद मेहतर की सासू शहर देखने आई। रास्ते में ही हाथ में झाड़ू बाल्टी लिये बेटी मिल गई। माँ पहले तो लाड़ से बेटी से गले मिली और फिर नाक पर आँचल रख लिया।
बेटी ने पूछा, “ऐ अम्मा, नाक-मुँह क्यों बंद कर लिया?”
माँ बोली, “बेटी बदबू आती है।”
बेटी अचम्भे से बोली, “कैसी बदबू? मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम देती।”
नल के इर्द-गिर्द घिरे हुए सभी कामगारों के थके चेहरों पर भी उसकी बात सुनकर हँसी खिल गई। घासी ने ही फिर बात को स्पष्ट किया, “ये भाई भी अभी हाथ नाक पे ले जाके सूँघ रहे थे तभी किस्सा याद आया। पहले-पहल हम भी ऐसे ही सूँघा करते थे। पर अब तो ससुरा पता ही नहीं लगता। कितनी बार तो साबुन नहीं मिलता, ऐसे ही पोंछ-पांछकर रोटी खाने बैठ जाते है।”
संकेत उसी की ओर था। परिहास के उत्तर में गम्भीर हो जाना उसे उचित न लगा। सभी की हँसी में उसने अपना योग भी दे दिया। परन्तु घासी की बात पर उसे आश्चर्य हो रहा था। तेल की ऐसी तीखी दुर्गध को साबुन से छुटाये बिना आदमी कैसे भला चैन से रह सकेगा, इसका उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।
कपड़े बदल कर वह लाइन में जा लगा। इकहरी पंक्ति के प्रारम्भ में हेड-फोरमैन के साथ एक गोरखा सिपाही खड़ा था। प्रत्येक मजदूर अपनी रोटी का खाली डिब्बा खोलकर उसे दिखाता और फिर दोनों हाथ ऊँचे उठाकर तलाशी देने की मुद्रा में खड़ा हो जाता। गोरखा सर्चर मजदूर की छाती, कमर ओर जेबों को टटोलकर आगे बढ़ जाने का संकेत कर देता।
जल्दी घर पहुँचने की इच्छा रखने वालों को पंक्ति की धीमी गति के कारण झुंझलाहट हो रही थी। इसी झुंझलाहट में कभी-कभी लोग पंक्ति में अपने से आगेवाले व्यक्ति को ठेल देते। बीच-बीच में मोटा फोरमैन उनकी इस जल्दबाजी का कोई भद्दा, अश्लील कारण बताकर हँस देता था। उसे फोरमैन का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। परंतु उसने सुना – पंक्ति में से ही कोई कह रहा था – “फोरमैन जी भी बड़े रंगीले आदमी हैं।”
सम्मति प्रकट करने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था जो अब भी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से फोरमैन की ओर देख रहा था कि जैसे फोरमैन ने यह मजाक करके उन पर बड़ी कपा कर दी हो!
उसकी तलाशी देने की बारी आ गई थी। ठिगने सिपाही ने अपनी एड़ी उठाकर बड़ी कठिनाई से उसकी तलाशी ली। सिपाही के इस आयास को देखकर उसका मन हँसने को हुआ परंतु मन पर अवसाद की धुन्ध इतनी गहरी छा गई थी कि वह हँस न सका। बड़े फाटक से पहले फिर इकहरी पंक्ति बन गई थी। परंतु इस बार पंक्ति के परले सिरे पर खड़ा हुआ सिपाही तलाशी नहीं ले रहा था, वरन यह देखने के लिए खड़ा था कि कोई भी व्यक्ति कठघरे में आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघे बिना न चला जाय। अन्य सभी मजदूरों की भाँति वह भी आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघकर बाहर चला आया। पीछे मुड़कर उसने फिर एक बार कटघरे की ओर देखा- लोग अब भी एक-एक कर कूदते हुए चले आ रहे थे। इस उछल-कूद का प्रयोजन वह नहीं समझ पाया। गेट से बाहर निकलकर उसने अनुभव किया जैसे वह बंद कोठरी से निकलकर खुली हवा में चला आया हो।
“क्या आफत बना रखी है!” अनायास ही उसके मुँह से निकल गया।
अनजाने में ही कहे गये ये शब्द साथ चलने वाले एक बुर्जुग के कानों तक पहुँच गये थे। उन्होंने धीरे-से अपनी राय प्रकट की, “नये आये लगते हो? पहले-पहल ऐसा ही लगता है, धीरे-धीरे आदत सी पड़ जाएगी।” आकाश की ओर अंगुली उठाकर उन्होंने बात आगे बढ़ाई, “उस नीली छतरी वाले का शुक्र करो कि यहाँ काम मिल गया। अच्छे-भले पढ़े-लिखे लोग धक्के खाते फिरते हैं, हमारे पड़ोस का एक लड़का…” बुजुर्ग अपने अनुभव की पोटली खोलकर बहुत कुछ बिखेरना चाहते थे, लेकिन उसका मन उनकी बातों में नहीं लगा, कनखियों से उसने उनकी ओर देखा। उस ‘ऊपर वाले’ के अहसान का बोझ उठाते-उठाते ही जैसे उनकी कमर टेढ़ी हो गई थी। वह चाल तेज कर आगे बढ़ गया।
रास्ते भर उसके दिमाग में वही सब-कुछ घूमता रहा जो वह दिन भर में देख-सुन चुका था। घासी और उस बुजुर्ग आदमी की बात याद आने पर वह सोचने लगा, क्या सच ही एक दिन वह भी सब-कुछ सहने का आदी हो जायेगा और नीली छतरी वाले के अहसानों का बोझ उसकी कमर को भी वैसे ही झुका देगा?…
कारखाने में यह उसका पहला दिन था।
फिर एक-एक कर कई दिन बीत गए। परंतु घुटन और अवसाद की छाया दिनों दिन बोझिल होती गई।
शहर के बाहरी भाग में स्थित कारखाने की पहली सीटी पर प्रतिदिन कामगर लोग अपनी-अपनी गृहस्थी छोड़कर हाथों में रोटी-चबैना की पोटली या डिब्बा लटकाए, अपनी सुध-बुध खोकर तेज कदमों से कारखाने की ओर चले आते। दिन-भर कारखाने की खटर-पटर में मशीनों और औजारों से जूझकर थकी-लस्त देह वालों का यह काफिला साँझ के धुंधलके में अपने घरों की ओर चल देता। सर्दी, गर्मी, बरसात में कभी भी इस क्रम में कोई बाधा न पड़ती।
कारखाने में अपने-अपने अड्डे पर काम करते हुए लोगों को हर रोज सुबह से शाम तक एक ही स्थान में, उन्ही चिर-परिचित मुद्राओं में देखकर उसे ऐसा लगता जैसे वह वर्षों से उन्हें उसी स्थान पर इसी रूप में देखता आ रहा हो। इस नीरस जिंदगी में कोई हलचल हो भी जाती तो उसका प्रभाव अधिक देर तक नहीं टिकता। तालाब में ठहरे हुए जल में कंकर फेंक देने पर जिस तरह क्षणिक हलचल होती है, वही प्रतिक्रिया वहाँ किसी नई घटना की होती। एक-दो दिन तक कारखाने में उस घटना की चर्चा रहती और फिर सब-कुछ पूर्ववत, शांत हो जाता।
साथी कामगरों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बातचीत या हँसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी। किसी प्रकार की नवीनता के प्रति सबके मन में एक विचित्र शंका-भाव जड़ जमाये बैठा रहता। शायद यही कारण था कि अचानक ही एक छोटी-सी घटना के पश्चात उसके साथियों का व्यवहार उसके प्रति शंकालु हो उठा था।
यों घटना कुछ विशेष नहीं थी। उस दिन कारखाने में हर जगह बीड़ी का तूफान मचा हुआ था।
“अबे, हद हो गई, यार! साला बुधुवा सुलगती बीड़ी निगल गया।”
“निगली नहीं यार, दाँत के नीचे दबा रखी थी।”
“हम वहीं खड़े थे, भाई। साहब ने मुँह खुलवाया, मुँह में नहीं थी।”
“कमाल है – साले को सरकस में जाना चाहिए।”
चीफ़ साहब के आदेश पर सभी मजदूर एक स्थान पर एकत्रित हो गये थे। साहब के निकट ही बुद्धन सिर झुकाए खड़ा था। उपस्थित समूह को नसीहत देते हुए साहब ने बताया कि किस तरह उन्होंने पीछे से जाकर बुद्धन को कारखाने के अंदर बीड़ी पीते हुए पकड़ा और किस प्रकार चतुराई से उसने बीड़ी मुँह के अंदर ही डालकर गायब कर ली थी।
साहब बोले, “कारखाने में इतनी कीमती चीजें पड़ी रहती हैं, किसी भी वक्त आग लग सकती है, एक आदमी की वजह से लाखों रुपये का नुकसान हो सकता है। हम ऐसी गलतियों पर कड़ी से कड़ी सजा दे सकते है।”
बुद्धन को कड़ी चेतावनी के साथ एक रुपये का दण्ड देने की साहब ने घोषणा कर दी, तभी भीड़ में से किसी ने ऊँचे स्वर में कहा, “साहब आग तो सभी की बीड़ी-सिगरेट से लग सकती है!”
सैकड़ों विस्मित आँखें उस ओर उठ गयीं जिधर से आवाज आई थी। साहब कुछ कहें इससे पहले वही व्यक्ति फिर बोला, “अफसर साहबान भी तो सारे कारखाने में मुँह में सिगरेट दाबे घूमते रहते हैं!”
भीड़ में एक भयानक खामोशी छा गयी। इस मुहँजोर नये आदमी की उदण्डता देखकर साहब का मुँह तमतमा उठा। बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से निकला, “ठीक है, हम देखेगें!” और फिर जाते-जाते उन्होंने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा जैसे उसकी मुखाकृति को अच्छी तरह पहचान लेने का प्रयत्न कर रहे हों।
चीफ साहब अपने चैम्बर की ओर चल दिये। भीड़ छँट गयी। हवा में चारों ओर कानाफूसी के विचित्र स्वर फैलने लगे। बुद्धन की ओर से हटकर लोगों का ध्यान अब उसकी ओर केन्द्रित हो गया था।
उस दिन छुट्टी के बाद लौटते हुए दो-तीन नौजवान उसके साथ हो लिये। प्रत्यक्ष रूप में किसी ने भी बीड़ी वाली घटना को लेकर उसकी सराहना नहीं की, यद्यपि उनके व्यवहार और उनकी बातों से उसे लगा जैसे उन्हें यह अच्छा लगा हो और वे उसके अधिक निकट आना चाहते हों। कठघरे से निकल कर एक नौजवान बुदबुदाया, “सालों को शक रहता है कि हम टांगों के साथ कुछ बाँधे ले जा रहे हैं, इसीलिए अब यह उछल-कूद का खेल कराने लगे हैं।”
“इनका बस चल तो ये गेट तक हमारी नागा साधुओं की सी बारात बनाकर भेजा करें।”, दूसरे ने उसकी बात का समर्थन किया।
“खीर खाए बामणी, फाँसी चढ़े शेख, नहीं देखा तो यहाँ आकर देख! छोटे साहब की गाड़ी के पिस्टन अंदर बदले गये है, खुद मैंने अपनी आँखों से देखा।” पहले वाले व्यक्ति ने आवेश में आकर कहा।
“चुप।” दूसरे नौजवान ने फुसफुसा कर उसे टोक दिया, “टेलीफून जा रहा है।”
एक चुस्त चालाक आदमी उनके साथ-साथ चलने लगा था। तभी दोनों जवानों ने अपनी बीवियों के बारे में बातें शुरू कर दीं।
इस घटना के बाद कुछ लोगों की दबी-दबी सहानुभूति पा जाने पर उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी अँधेरे, बंद तहखाने में प्रकाश की हल्की किरण का आसरा उसे मिल गया हो। पर सभी कामगरों की आँखों में सहानुभूति का यह भाव नहीं था। अनेक सहकर्मी इस घटना के पश्चात उसके प्रति रूखा व्यवहार करने लगे थे, और कुछ ऐसी भी आँखें थीं जिनमें अचानक ही ईर्ष्या और उपेक्षा की भावना उभर आई थी।
ऐसी ही एक जोड़ा आँखें एक दिन छुट्टी के बाद मार्ग में बहुत दूर तक उसका पीछा करती रही थीं। उसे ऐसा लगा जैसे साथ में चलने वाला वह व्यक्ति उससे कुछ कहने के लिए अकुला रहा है। उन दोनों के साथ-साथ मजदूरों का झुंड हाथों में थैला या टिफिन का खाली डिब्बा लटकाए चला जा रहा था। एक नई उम्र के शरारती कारीगर बीरू ने अपने से आगे चलने वाले अधेड़ उम्र के लालमणि के कुर्ते का पिछला हिस्सा उठाकर सिगरेट का खाली पैकेट फँसा दिया था, पीछे चलने वाली भीड़ लालमणि के कुर्ते की पूँछनुमा बनावट और इस संबंध में उसकी अज्ञानता का आनंद ले रही थी। तभी किसी ने उसके साथ चलने वाले आदमी को लक्ष्य कर आवाज दी-
“नेताजी, जैराम जी की!”
साथ चलने वाले व्यक्ति की ईर्ष्यालु दृष्टि का रहस्य उसकी समझ में आ गया। उत्तर में ‘नेता’ ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, “काहे शर्मिदा करते हो भाई, अब तो कारखाने में बड़े-बड़े नेता पैदा हो गये है। हम किस खेत के मूली हैं।”
जिस बात की उसे आशंका थी वही हुआ। शायद रात की सारी रिपोर्ट चीफ साहब के पास पहुँच गई थी। चपरासी ने साहब के कमरे का द्वार खोलकर उसे उनके सामने पहुंचा दिया, फिर द्वार पूर्ववत बंद हो गया। साहब ने अपने हाथों से स्टूल उठाकर बैठने के लिए आगे बढ़ा दिया और फिर नरमी से बोले, “हम तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहे हैं। जमाना बुरा है। बाल-बच्चे वाले आदमी को ऐसी बातों में नहीं पड़ना चाहिए।”
अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए साहब ने उसकी ओर देखा। उनके हाथ मेज पर बिछे कपड़े की सलवटों को सहलाने में व्यस्त थे। साहब की ओर देखकर इस प्रश्न का उत्तर उनकी आँखों में ही झाँक पाने का उसका मन हुआ, परंतु काले चश्मे के अपारदर्शी शीशों के पीछे छिपी आँखों के स्थान पर केवल अंधकार घिरा हुआ था।
“ऐसा कोई खतरनाक काम तो मैंने नहीं किया, सा’ब।”, उसने पेपरवेट के फूलों पर अपनी नजर जमाकर उत्तर दिया।
“हम जानते हैं, सब कुछ जानते हैं। कल रात तुम्हारे घर मीटिंग हुई थी या नहीं?” मानसिक उत्तेजना के कारण साहब दोनों हाथों की अँगुलियों को आपस में उलझाते हुए बोले।
“यार-दोस्त बैठने के लिये आ जाए तो उसे मीटिंग कौन कहेगा सा’ब?” उसने बात का महत्व कम करने की कोशिश में मुस्कराने का अभिनय किया।
“सुनो जवान! यार दोस्तों की महफिल में गप्पें होती है, ताश खेले जाते है, शराब पी जाती है, लेकिन स्कीमें नहीं बनतीं।” इस बार स्वर कुछ अधिक सधा हुआ था।
“साहब, लोगों को मकान की परेशानी है, छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं, छोटी-छोटी बातों पर जुर्माना हो जाता है। यहीं बातें आपसे अर्ज करनी थी। यही वहाँ भी सोच रहे थे।” स्वर में दीनता थी परन्तु साहब के चेहरे पर टिकी हुई उसकी तीखी दृष्टि अनजान में ही जैसे इस अभिनय को झुठला रही थी।
“मैं कौन होता हूँ, जो तुम लोग मुझसे यह कहने के लिए आते हो? मैं भी तो भाई, तुम्ही लोगों की तरह एक छोटा-मोटा नौकर हूँ।”, अपनी दोनों हथेलियों को मेज पर फैलाकर साहब ने कृत्रिम मुस्कान का ऋण लौटा दिया और अपनी कुर्सी पर अधिक आश्वस्त होकर बैठ गए।
उनके सामने बैठे हुए व्यक्ति को यह समझौता स्वीकार न हुआ। कृत्रिमता के आवरण को पूरी तरह उतार कर दृढ़ स्वर में वह बोला, “तो जो हमारी बात सुनेगा, उसी से कहेंगे सा’ब!”
एकाएक साहब बौखला कर कुर्सी पर उछल पड़े, “तुम लोग बाहर की पार्टियों के एजेन्ट हो, ऐसे लोग ही हड़ताल करवाते हैं। मैं एक-एक को सीधा करवा दूँगा। मैं जानता हूँ तुम्हारे गुट में कौन-कौन है। आइन्दा ऐसी बातें मैं नहीं सुनना चाहता।”
वह चीफ के कमरे से निकलकर अपने काम पर लौटा तो मिस्त्री पास बैठाकर समझाने लगा, “इस दुनिया में सबसे मेल-जोल रखकर चलना पड़ता है। नदी किनारे की घास पानी के साथ थोड़ा झुक लेती है और फिर उठ खड़ी होती है। लेकिन बड़े-बड़े पेड़ धार के सामने अड़ते है और टूट जाते हैं। साहब ने तुम्हारी बदली कास्टिक टैंक पर कर दी है। बड़ा सख्त काम है, अब भी साहब को खुश कर सको तो बदली रुक सकती है।”
उत्तर में उसने कुछ नहीं कहा। उठकर कास्टिक टैंक पर चला गया। टैंक पर काम करने वाले मजदूरों ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। उसे ऐसा लगा कि जैसे वे लोग जान-बूझकर उससे पृथक रहने का प्रयत्न कर रहे हों। पुराने पेंट और जंग लगे हुए सामान को कास्टिक में धोया जा रहा था। आगे बढ़कर उसने भी उन्हीं की तरह काम शुरु कर दिया।
शाम तक काम का यही क्रम चलता रहा। घर लौटकर उसने अनुभव किया- हाथ-पैर में विचित्र प्रकार की जलन हो रही थी।
घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर गया था। हाथ-मुँह धोकर उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया और फिर बच्चे को लेकर आँगन में झिलंगी चारपाई पर आ बैठा। साँझ अत्यधिक उदास हो आई थी। बच्चे ने कुछ देर तक उससे खेलने का प्रयत्न किया, लेकिन पिता की ओर से विशेष प्रोत्साहन न पाने पर वह कब माँ के पास चला गया, इसका उसे ध्यान न रहा। जिनकी उसे प्रतीक्षा थी उनमें से कोई भी न आया था, केवल हरीराम ने आकर अब तक दो-तीन बीड़ियाँ फूँक ली थीं।। हरीराम की ओर से ही दो-तीन बार बातचीत शुरू करने का प्रयत्न किया जा चुका था, लेकिन उसके अटूट मौन के कारण हर बार यह प्रयत्न विफल सिद्ध हुआ। इस बार फिर हरीराम ने ही बात छेड़ी।
“घनश्याम की तो बीवी बीमार हो गई, लेकिन मोहन, राधे, हनीफ, वगैरह किसी को तो आना चाहिए था।”
“शायद उनके बच्चे बीमार हो गये हों”, झुझंलाकर उसने उत्तर दे दिया।
हरीराम ने फिर बात दुहराई, इस बार स्वर में चाटुता की भरमार थी, “हम तो तुम्हारे पीछे हैं भाई। जैसा तुम कहोगे वैसा करेंगे। मैं तो ठीक टैम पर आ गया था, देख लो।”
“तुम ठीक टैम पर न आओगे तो चीफ साहब को रिपोर्ट कौन देगा?” हरीराम की ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डालकर घृणा से उसने कहा और अपनी साइकिल उठाकर बाहर चल दिया।
उसके विरुद्ध कब कौन-सा षड्यंत्र रच दिया जाए, इसका उसे संदेह रहने लगा था। छुट्टी होने पर उसने शीघ्रता से थैला कंधे पर डाला। दोपहर में उसने सब रोटियाँ खा ली थीं पर आज थैला अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ भारी था। विस्मय से उसने रोटी के डिब्बे को खोलकर देखा… एक कागज में छोटे-मोटे नट-बोल्ट लिपटे रखे थे। उसने अनुभव किया कि उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई है। आवेश में उसकी मुट्ठी भिंच गयी, परंतु फिर संयत होकर उसने वह सामान पास की अलमारी में डाल दिया।
बाहर पंक्ति के परले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को अपने डिब्बे-थैले खोलकर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गई थी। फोरमैन ने स्वयं डिब्बा-थैला हाथों में लेकर देखा। असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेबें टटोलने का उसने आदेश दिया। उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोली, परंतु फोरमैन के चेहरे पर फिर निराशा छा गई। जाते-जाते उसने फोरमैन की ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थी। गर्व से छाती उठाकर वह गेट की ओर चल दिया।
प्रातःकाल अंतिम साइरन हो जाने पर गेट बंद हो जाना चाहिए, फिर आधा घंटा उसके खोले जाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, परंतु व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं होता। साइरन सुनकर दूर से पैदल आने वाले दौड़ लगाना शुरू कर देते हैं। साइकिलों के पैडिल दुगनी गति से चलने लगते हैं। लोग हाँफते-हाँफते दो-तीन मिनट में अंदर पहुँच पाते हैं। पकी उम्र के बड़े-बूढ़े अंदर आकर घड़ी भर दम लेने के बाद ही हाजिरी पर जा पाते है। परंतु उस दिन वर्क-मैनेजर ने साइरन के बाद ही गेट बंद करवा दिया। वह गेट से बीस-तीस गज की दूरी पर ही था परंतु वहाँ पहुँचने से पहले ही चौकीदार ने जाली खोल दी। अभी बीस-पच्चीस आदमी और भी थे जो हाँफते हुए चले आ रहे थे। निकट आकर सभी उदास हो गए। आधा घंटा देर से आने का दंड छः-आठ आना से कम नहीं होता।
पिछली बार वेतन के दिन घर जाने पर पत्नी ने उससे पूछा था, “कितने हैं?”
“चौवन, आठ आने।”
“अच्छा! मैंने पूरे पचपन का हिसाब लगाया था। बबुआ की टोपी इस महीने भी रह गयी।”
‘हाँफते हुए लोगों में से कितनों के बबुओं की टोपी इस बार भी रह जायेगी’, उसने सोचा। परंतु तभी उसने जो कुछ सुना उसे सुनकर उसे ऐसा लगा जैसे सारा दोष अकेले उसी का हो। वही झुकी कमर वाले बुजुर्ग हांफते हुए कह रहे थे, “घोड़े के पीछे, और अफसर के आगे कौन समझदार जाएगा? एक आदमी के कारण इतने लोगों का नुकसान हो गया, ऐसे लड़ने-भिड़ने को ही जवानी बना रखी हो, तो आदमी दंगल करे, अखाड़े में जाए। नौकरी में तो नौकर की ही तरह रहना चाहिए।”
उसका मन हुआ कि बुजुर्ग के पास जाकर कुछ बात करे, पर न जाने क्यों वह ऐसा न कर सका।
दिन-भर वह यंत्रवत् काम करता रहा। थकान के कारण शरीर चूर-चूर हो रहा था। परंतु बैठकर सुस्ता लेने को भी उसका मन नहीं हुआ। कैंटीन में जाकर उसने चाय ली और अनुभव किया कि चाय फीकी है। पहले किसी दिन ऐसी बात होती तो वह कैंटीन मैनेजर से शिकायत करता परंतु आज आधी चाय छोड़कर चला आया।
ग्रीज और तेल लगा हुआ सामान उठाने के कारण हाथ गंदगी से भर गये थे। साइरन की आवाज उसके कानों में पड़ी, तब उसने काम बंद किया। ऐसा लगता था कि साइरन यदि किसी कारण से न बजता तो वह उसी प्रकार यंत्रवत काम करता रहता। साथी कामगर हाथ धोकर कपड़े पहन रहे थे। जल्दी-जल्दी में उसने दोनों हाथ कैरोसीन तेल में धो डाले। साबुन का डिब्बा टटोलकर देखा तो वह खाली था। भूमि पर से थोड़ी मिट्टी उठाकर वह नल की ओर चल दिया। पिछले तीन-चार महीनों की नौकरी में आज वह पहली बार मिट्टी से हाथ धो रहा था। भुरभुरी मिट्टी को पानी के साथ लगाकर उसने हाथों में मला और फिर दोनों हाथ नल के नीचे लगा दिए। पानी के साथ मिट्टी की पतली पर्त भी बह चली। दूसरी बार मिट्टी लगाने से पहले उसने हाथों को सूँघा और अनुभव किया कि हाथों की गंध मिट चुकी है।
सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा आज वह भी घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है। उसने चाहा कि वह एक बार फिर हाथों को सूँघ ले। लेकिन उसका साहस न हुआ। मगर फिर बड़ी मुश्किल से वह धीरे-धीरे दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही। …पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों से कैरोसीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी!