गत 16 अक्टोबर को बंगविच्छेद या बंगाल का पार्टीशन हो गया। पूर्व बंगाल और आसाम का नया प्रान्त बनकर हमारे महाप्रभु माई लार्ड इंगलेण्ड के महान राजप्रतिनिधि का तुगलकाबाद आबाद हो गया। भंगड़ लोगों के पिछले रगड़े की भांति यही माई लार्ड की सबसे पिछली प्यारी इच्छा थी। खूब अच्छी तरह भंग घुटकर तय्यार हो जाने पर भंगड़ आनन्द से उस पर एक और रगड़ लगाता है। भंगड़-जीवन में उससे बढ़कर और कुछ आनन्द नहीं होता। माई लार्ड के भारतशासन जीवन में भी इससे अधिक आनन्द की बात कदाचित् कोई न होगी, जिसे पूरी होते देखने के लिए आप इस देश का सम्बन्ध-जाल छिन्न कर डालने पर भी उससे अटके रहे।
माई लार्ड को इस देश में जो कुछ करना था, वह पूरा कर चुके थे। यहां तक कि अपने सब इरादों को पूरा करते करते अपने शासनकाल की इतिश्री भी अपने ही करकमल से कर चुके थे। जो कुछ करना बाकी था, वह यही बंगविच्छेद था। वह भी हो गया। आप अपनी अन्तिम कीर्ति की ध्वजा अपने ही हाथों से उड़ा चले और अपनी आंखों को उसके प्रियदर्शन से सुखी कर चले, यह बड़े सौभाग्य की बात है। अपने शासनकाल की रकाबी में बहुत सी कड़वी कसैली चीजें चख जाने पर भी आप अपने लिये ‘मधुरेण समापयेत्’ कर चले यही गनीमत है।
अब कुछ करना रह भी गया हो तो उसके पूरा करने की शक्ति माई लार्ड में नहीं है। आपके हाथों से इस देश का जो बुरा भला होना था, वह हो चुका। एक ही तीर आपके तर्कश में और बाकी था, उससे आप बंगभूमि का वक्षस्थल छेद चले। बस, यहां आकर आपकी शक्ति समाप्त हो गई। इस देश की भलाई की ओर तो आपने उस समय भी दृष्टि न की, जब कुछ भला करने की शक्ति आप में थी। पर अब कुछ बुराई करने की शक्ति भी आप में नहीं रही, इससे यहां के लोगों को बहुत ढाढ़स मिली है। अब आप हमारा कुछ नहीं कर सकते।
आपके शासनकाल में बंगविच्छेद इस देश के लिए अन्तिम विषाद और आपके लिए अन्तिम हर्ष है। इस प्रकार के विषाद और हर्ष, इस पृथिवी के सबसे पुराने देश की प्रजा ने बारम्बार देखे हैं। महाभारत में सबका संहार हो जाने पर भी घायल पड़े हुए दुर्मद दुर्योधन को अश्वत्थामा की यह वाणी सुनकर अपार हर्ष हुआ था कि मैं पांचों पाण्डवों के सिर काटकर आपके पास लाया हूँ। इसी प्रकार सेनासुधार रूपी महाभारत में जंगी लाट किचनर रूपी भीम की विजय-गदा से जर्जरित होकर पदच्युति-हृद में पड़े इस देश के माई लार्ड को इस खबर ने बड़ा हर्ष पहुंचाया कि अपने हाथों से श्रीमान् को बंगविच्छेद का अवसर मिला। इसी महाहर्ष को लेकर माई लार्ड इस देश से विदा होते हैं, यह बड़े सन्तोष की बात है। अपनों से लड़कर श्रीमान्-की इज्जत गई या श्रीमान्-ही गये, उसका कुछ ख्याल नहीं है, भारतीय प्रजा के सामने आपकी इज्जत बनी रही, यही बड़ी बात है। इसके सहारे स्वदेश तक श्रीमान् मोछों पर ताव देते चले जा सकते हैं।
श्रीमान्-के खयाल के शासक इस देश ने कई बार देखे हैं। पांच सौ से अधिक वर्ष हुए तुगलक वंश के एक बादशाह ने दिल्ली को उजाड़ कर दौलताबाद बसाया था। पहले उसने दिल्ली की प्रजा को हुक्म दिया कि दौलताबाद में जाकर बसो। जब प्रजा बड़े कष्ट से दिल्लीको छोड़कर वहां जाकर बसी तो उसे फिर दिल्ली को लौट आने का हुक्म दिया। इस प्रकार दो तीन बार प्रजा को दिल्लीसे देवगिरि और देवगिरि से दिल्ली अर्थात श्रीमान् मुहम्मद तुगलक के दौलताबाद और अपने वतन के बीच में चकराना और तबाह होना पड़ा। हमारे इस समय के माई लार्ड ने केवल इतना ही किया है कि बंगाल के कुछ जिले आसाम में मिलाकर एक नया प्रान्त बना दिया है। कलकत्ते की प्रजा को कलकत्ता छोड़कर चटगांव में आबाद होने का हुक्म तो नहीं दिया। जो प्रजा तुगलक जैसे शासकों का खयाल बरदाश्त कर गई, वह क्या आजकल के माई लार्ड के एक खयाल को बरदाश्त नहीं कर सकती है?
सब ज्यों का त्यों है। बंगदेश की भूमि जहां थी वहीं है और उसका हर एक नगर और गांव जहां था वहीं है। कलकत्ता उठाकर चीरापूँजी के पहाड़ पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगली के पुल पर नहीं आ बैठा। पूर्व और पश्चिम बंगाल के बीच में कोई नहर नहीं खुद गयी और दोनों को अलग अलग करने के लिये बीच में कोई चीन की सी दीवार नहीं बन गई है। पूर्व बंगाल, पश्चिम बंगाल से अलग हो जाने पर भी अंग्रेजी शासन ही में बना हुआ है और पश्चिम बंगाल भी पहले की भांति उसी शासन में है। किसी बात में कुछ फर्क नहीं पड़ा। खाली खयाली लड़ाई है। बंगविच्छेद करके माई लार्ड ने अपना एक खयाल पूरा किया है। इस्तीफा देकर भी एक खयाल ही पूरा किया और इस्तीफा मंजूर हो जाने पर इस देश में पड़े रहकर भी श्रीमान्-का प्रिन्स आफ वेल्स के स्वागत तक ठहरना एक खयाल मात्र है।
कितने ही खयाली इस देश में अपना खयाल पूरा करके चले गये। दो सवा दो सौ साल पहले एक शासक ने इस बंगदेश में एक रुपये के आठ मन धान बिकवाकर कहा था कि जो इससे सस्ता धान इस देश में बिकवाकर इस देश के धनधान्य-पूर्ण होने का परिचय देगा, उसको मैं अपने से अच्छा शासक समझूँगा। वह शासक भी नहीं है, उसका समय भी नहीं है। कई एक शताब्दियों के भीतर इस भूमि ने कितने ही रंग पलटे हैं, कितनी ही इसकी सीमाएं हो चुकी हैं। कितने ही नगर इसकी राजधानी बनकर उजड़ गये। गौड़ के जिन खण्डहरों में अब उल्लू बोलते और गीदड़ चिल्लाते हैं, वहां कभी बांके महल खड़े थे और वहीं बंगदेश का शासक रहता था। मुर्शिदाबाद जो आज एक लुटा हुआ सा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंगदेश की राजधानी था और उसकी चहल-पहल का कुछ ठिकाना न था। जहां घसियारे घास खोदा करते थे, वहां आज कलकत्ता जैसा महानगर बसा हुआ है, जिसके जोड़ का एशिया में एक आध नगर ही निकल सकता है। अब माई लार्ड के बंगविच्छेद से ढाका, शिलांग और चटगांव में से हरेक राजधानी का सेहरा बंधवाने के लिये सिर आगे बढ़ाता है। कौन जाने इनमें से किस के नसीब में क्या लिखा है और भविष्य क्या क्या दिखायेगा।
दो हजार वर्ष नहीं हुए इस देश का एक शासक कह गया है –
“सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसी के भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवी के पाने से क्या राजाओं को अभिमान करना चाहिये? अब तो लोग इसके अंश के अंश को पाकर भी अपने को भूपति मानते हैं। ओहो। जिसपर पश्चाताप करना चाहिये उसके लिये मूर्ख उल्टा आनन्द करते है।”
वही राजा और कहता है –
“यह पृथिवी मट्टी का एक छोटा-सा ढेला है जो चारों तरफ से समुद्ररूपी पानी की रेखा से घिरा हुआ है। राजा लोग आपस में लड़भिड़कर इस छोटे से ढेले के छोटे-छोटे अंशों पर अपना अधिकार जमाकर राज्य करते हैं। ऐसे क्षुद्र और दरिद्री राजाओं को लोग दानी कहकर जांचने जाते हैं। ऐसे नीचों से धन की आशा करने वाले अधम पुरुषों को धिक्कार है।”
यह वह शासक था कि इस देश का चक्रवर्ती अधीश्वर होने पर भी एक दिन राजपाट को लात मारकर जंगलों और बनों में चला गया था। आज वही भारत एक ऐसे शासक का शासनकाल देख रहा है जो यहां का अधीश्वर नहीं है, कुछ नियत समय के लिये उसके हाथ में यहां का शासनभार दिया गया था, तो भी इतना मोह में डूबा हुआ है कि स्वयं इस देश को त्यागकर भी इसे कुछ दिन और न त्यागने का लोभ संवरण न कर सका।
यह बंगविच्छेद बंग का विच्छेद नहीं है। बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये। जिन्होंने गत 16 अक्टोबर का दृश्य देखा है, वह समझ सकते हैं कि बंगदेश या भारतवर्ष में नहीं, पृथिवी भर में वह अपूर्व दृश्य था। आर्य सन्तान उस दिन अपने प्राचीन वेश में विचरण करती थी। बंगभूमि ऋषि-मुनियों के समय की आर्यभूमि बनी हुई थी। किसी अपूर्व शक्ति ने उसको उस दिन एक राखी से बांध दिया था। बहुत काल के पश्चात भारत सन्तान को होश हुआ कि भारत की मट्टी वन्दना के योग्य है। इसी से वह एक स्वर से ‘बन्दे मातरम्’ कहकर चिल्ला उठे। बंगाल के टुकड़े नहीं हुए, वरंच भारत के अन्यान्य टुकड़े भी बंगदेश से आकर चिमटे जाते हैं।
हां, एक बड़े ही पवित्र मेल को हमारे माई लार्ड विच्छिन्न किये जाते हैं। वह इस देश के राजा प्रजा का मेल है। स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी के घोषणापत्र और शासनकाल ने इस देश की प्रजा के जी में यह बात जमा दी थी कि अंग्रेज, प्रजा की बात सुनकर और उसका मन रखकर शासन करना जानते हैं और वह रंग के नहीं, योग्यता के पक्षपाती हैं। केनिंग और रिपन आदि उदार हृदय शासकों ने अपने सुशासन से इस भाव की पुष्टि की थी। इस समय के महाप्रभु ने दिखा दिया कि वह पवित्र घोषणापत्र समय पड़े की चाल मात्र था। अंग्रेज अपने खयाल के सामने किसी की नहीं सुनते। विशेषकर दुर्बल भारतवासियों की चिल्लाहट का उनके जी में कुछ भी वजन नहीं है। इससे आठ करोड़ बंगालियों के एक स्वर होकर दिन रात महीनों रोने-गाने पर भी अंग्रेजी सरकार ने कुछ न सुना। बंगाल के दो टुकड़े कर डाले।
उसी माई लार्ड के हाथ से दो टुकड़े कराये, जिसके कहने से उसने केवल एक मिलिटरी मेम्बर रखना भी मंजूर नहीं किया और उसके लिये माई लार्ड को नौकरी से अलग करना भी पसन्द किया। भारतवासियों के जी में यह बात जम गई कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना गाना वृथा है। दुर्बल की वह नहीं सुनते।
बंगविच्छेद से हमारे महाप्रभु सरदस्त राजा प्रजा में यही भाव उत्पन्न करा चले हैं। किन्तु हाय। इस समय इस पर महाप्रभु के देश में कोई ध्यान देने वाला तक नहीं है, महाप्रभु तो ध्यान देने के योग्य ही कहां?