‘Bhaat De Haramzade’, a poem by Rafiq Azad

बांग्ला से अनुवाद: अमिताभ चक्रवर्ती

बहुत भूखा हूँ, पेट के भीतर लगी है आग, शरीर की समस्त क्रियाओं से ऊपर
अनुभूत हो रही है हर क्षण सर्वग्रासी भूख, अनावृष्टि जिस तरह
चैत के खेतों में, फैलाती है तपन
उसी तरह भूख की ज्वाला से, जल रही है देह

दोनों शाम, दो मुट्ठी मिले भात तो
और माँग नहीं है, लोग तो बहुत कुछ माँग रहे हैं
बाड़ी, गाड़ी, पैसा, किसी को चाहिए यश,
मेरी माँग बहुत छोटी है

जल रहा है पेट, मुझे भात चाहिए
ठण्डा हो या गरम, महीन हो या मोटा
राशन का लाल चावल, वह भी चलेगा
थाल भरकर चाहिए, दोनों शाम दो मुट्ठी मिले तो
छोड़ सकता हूँ अन्य सभी माँगें

अतिरिक्त लोभ नहीं है, यौन क्षुधा भी नहीं है
नहीं चाहिए, नाभि के नीचे की साड़ी
साड़ी में लिपटी गुड़िया, जिसे चाहिए उसे दे दो
याद रखो, मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है

नहीं मिटा सकते यदि मेरी यह छोटी माँग, तो तुम्हारे सम्पूर्ण राज्य में
मचा दूँगा उथल-पुथल, भूखों के लिए नहीं होते हित-अहित, न्याय-अन्याय

सामने जो कुछ मिलेगा, निगलता चला जाऊँगा निर्विचार
कुछ भी नहीं छोड़ूँगा शेष, यदि तुम भी मिल गए सामने
राक्षसी मेरी भूख के लिए, बन जाओगे उपादेय आहार

सर्वग्रासी हो उठे यदि सामान्य भूख, तो परिणाम भयावह होते है याद रखना

दृश्य से द्रष्टा तक की धारावाहिकता को खाने के बाद
क्रमश: खाऊँगा- पेड़-पौधे, नदी-नाले
गाँव-क़स्बे, फुटपाथ-रास्ते, पथचारी, नितम्ब-प्रधान नारी
झण्डे के साथ खाद्यमन्त्री, मन्त्री की गाड़ी

मेरी भूख की ज्वाला से कोई नहीं बचेगा,
भात दे, हरामज़ादे! नहीं तो खा जाऊँगा तेरा मानचित्र।

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