जब लश्कर-ए-आफ़ताब जाने लगे,
शब दहलीज़ पर आ दरवाज़ा खटखटाने लगे,
तब जहाँ रंगीनियाँ नाचने-गाने लगें
मजनुओं की इबादतगाह
तुम शहर का वो हसीन पार्क हो,
तुम मेरी महबूब किताब का गायब बुकमार्क हो
ज़कात में, नमाज़ में,
ईद में, इफ़्तार में,
रोजों में, रमज़ान में
हम-से काफ़िरों को
जिसका इन्तज़ार था
तुम चाँद का वो खूबसूरत आर्क हो,
तुम मेरी महबूब किताब का गायब बुकमार्क हो
ख़ंजरों से सजी महफ़िलें,
घावों के हुए सिलसिले,
सब दाग मामूली मिट गए
तुम एक अमिट मार्क हो,
तुम मेरी महबूब किताब का गायब बुकमार्क हो