‘Deewar Aur Galiyaan’, a poem by Niki Pushkar
अभी वो दोनों मिले ही थे
कि
उनकी घरों की दीवारें ऊँची होने लगीं
और शहर की गलियाँ तंग,
दीवारों के पार
एक दूसरे को देखना भी
मुश्किल था
तंग गलियों में साथ-साथ चलना भी
दूभर था
हाँ,
कई बार आया तो जी में
कि
ऊँची दीवारों को तोड़ दें
तंग रास्तों को छोड़ दें
और चले जाएँ ऐसी जगह
जहाँ की ज़मीन
उनके साथ चलने पर
एतराज़ न जताए
किन्तु,
‘जी’ में आया ‘जी तक’ ही रहा…
कि वो दीवारें भी सगी थीं
और वो गलियाँ भी परायी न थीं
लिहाज़ा,
वो न तोड़ी गयीं, न छोड़ी गयीं।