दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी हैं। तुम चुपचाप खड़े हो
हाथ धरे छाती पर; मानो वहीं गड़े हो।
मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्के मारें
और ढहा दें। उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे वैसे आघातों से। स्तब्ध पड़े हो
किस दुविधा में। हिचक छोड़ दो। ज़रा कड़े हो।
आओ, अलगाने वाले अवरोध निवारें।
बाहर सारा विश्व खुला है, वह अगवानी
करने को तैयार खड़ा है, पर यह कारा
तुम को रोक रही है। क्या तुम रुक जाओगे।
नहीं करोगे ऊँची क्या गरदन अभिमानी।
बाँधोगे गंगोत्री में गंगा की धारा।
क्या इन दीवारों के आगे झुक जाओगे।
त्रिलोचन की कविता 'खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार'