दर्द याद रहता है
ख़ुशी गुम हो जाती है
दंश विस्मृत नहीं होता
स्पर्श में से बचा रह जाता है
उतना हिस्सा
जो रह जाता है उँगलियों पर चिपककर।

भूख अमाशय में रहती है
जिह्वा पर उड़ती है स्वाद की तितली
ख़ाली पेट तमाम कोशिशों के बावजूद
मुनादी वाले नगाड़े-सा नहीं बजता
तृप्ति एक फ़र्ज़ी व्यंजना है
कविता के कूड़ेदान में पड़ी जूठन

सच की बात करते-करते
झूठमूठ चेहरे पर ओढ़नी पड़ती है उदासी
अपनापन खोजता आदमी अक्सर
निकल पड़ता है अंतरांध यात्रा पर
यात्राएँ जो कभी नहीं थमतीं
जिनमें गति सदा संदिग्ध रही

आषाढ़ के महीने में याद रहती है
ज्येष्ठ की भरपूर दोपहरी
टोंटी वाले घड़े से रिसता है
हमारे समय का सादा पानी
अलसाये हुए धूपिया वक़्त में
पसीने में लथपथ कोई याद नहीं आती

लोककथाओं वाला प्यासा कौआ
अब क्यों नहीं आ बैठता घर की मुंडेर पर
उसकी चोंच में अब कोई पत्थर नहीं दिखता
हर हाल में ठण्डे जल में
चोंच डुबा देने की उसकी चतुराई क्या हुई
उपस्थिति जताने वह बार-बार क्यों नहीं आता

तपते हुए जानलेवा दिनों में बचे
तो हम भी लम्बी ठण्ड भरी रातों में
बच्चों को सुनाएँगे
हँसते-हँसाते ज़िंदा बच निकलने के
कुछ अविश्वसनीय चुटकुले
कुछ नितांत कल्पित कथाएँ!

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निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]

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