जितना बड़ा नाम सुरेन्द्र मोहन पाठक हिन्दी के अपराध लेखन या पोपुलर साहित्य में रखते हैं, उस हिसाब से आज भी मुझे लगता है कि उन्हें कम पढ़ा गया है। मेरी इस बात को पाठक जी की किताबों की बिक्री के आकड़ें खारिज कर देंगे, लेकिन यह बात भी ध्यान में रखनी पड़ेगी कि उनकी एक ख़ास रीडरशिप के बाहर, गंभीर साहित्य पढ़ने वाले लोगों में कितने लोग उनके उपन्यास पढ़ चुके हैं और उन पर चर्चा कर चुके हैं। क्योंकि उनकी पसंद से इतर लेकिन यह एक अलग साहित्य धारा अस्तित्व में है और जब तक यह धारा भी हिन्दी के गंभीर लेखन की धारा में न घुलेगी-मिलेगी, इसकी पहुँच का फायेदा, लेखक को तो मिल सकता है, लेकिन भाषा को मिलना मुश्किल है। यह सब बातें मैंने इसलिए की, क्योंकि मेरा खुद का सुरेन्द्र मोहन पाठक को पढ़ने का यह पहला मौका था और मैं इस बात से आश्वस्त हूँ कि इस लेखन की बात भी गंभीरता से होनी चाहिए।

हीरा फेरी, भूमिका से पता चला, लेखक का 297वां और जीतसिंह सीरीज का 11वां उपन्यास है। यह उपन्यास अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुआ है, लेकिन कोई एक, दूसरे का अनुवाद नहीं है। पाठक जी ने दोनों उपन्यास अलग-अलग लिखे हैं और इस तरह उनका यह अंग्रेजी में लिखा पहला उपन्यास भी होगा। मैंने हिन्दी संस्करण पढ़ा है। अंग्रेज़ी संस्करण का नाम ‘डायमंड्स आर फ़ॉर ऑल’ है।

‘हीरा फेरी’ जैसे नाम से पता चलता है हीरों की हेरा फेरी की कहानी है। जीतसिंह अंडरवर्ल्ड का टोपमोस्ट लॉकबस्टर, सेफक्रैकर, तालातोड़ है, जो कुछ ही महीनों पहले कई मुसीबतों में पड़ने और उनसे बाहर निकलने के बाद आजकल इमानदारी से बिना किसी पंगे के मुम्बई के एक इलाके में टैक्सी चलाता है। लेकिन पंगों के लिए जीतसिंह की किस्मत चुम्बक का काम करती है और बिना चाहे भी परेशानियां उसके गले पड़ जाती हैं। इसी के चलते एक रात को एक पैसेंजर जोकम उसकी टैक्सी में बैठता है जिसके पास एक ब्रीफ़केस में चालीस करोड़ के स्मगलिंग के हीरे हैं, जो उसे अपने एक और साथी के साथ मिलकर अपने बॉस अंडरवर्ल्ड डॉन अमर नायक तक पहुंचाने थे। लेकिन जोकम ने पैसों के लालच में अपने साथी का काम तमाम कर दिया और हीरे लेकर फरार हो गया। लेकिन इसी बीच एक दूसर गैंग के लोग भी उसके पीछे पड़ जाते हैं और उन्हीं से बचने के लिए जोकम जीतसिंह की टैक्सी में बैठता है। लेकिन वो लोग अभी भी उसके पीछे पड़े हुए हैं। कोई और रास्ता न पाकर जोकम ब्रीफ़केस जीतसिंह के पास छोड़कर यह कहकर टैक्सी से कूद जाता है कि वह यह ब्रीफ़केस उससे बाद में ले लेगा। लेकिन अगली ही सुबह परिस्थितियाँ ऐसी करवट लेती हैं कि जीतसिंह खुद को चारों तरफ से परेशानियों से घिरा पता है। जीतसिंह की चालीस करोड़ के इन हीरों के साथ की जद्दोजहद की ही कहानी है हीरा फेरी।

कहानी यूँ बहुत नयी नहीं लगती लेकिन कथानक की बनावट कुछ इस ढंग से है कि उपन्यास की शुरुआत से अंत तक रहस्य और रोमांच बना रहता है। अगर आपने इसे पढ़ने का मन बनाया तो एक या दो सिटिंग से ज्यादा इंतज़ार करना मुश्किल होगा। जगहों और पात्रों का विवरण बड़ा विस्तृत और प्रमाणिक है। लेकिन इस विस्तृत विवरण में कहीं भी ऊब पैदा नहीं होती क्योंकि आम लोगों से अलग अंडरवर्ल्ड और टैक्सी ड्राइवर्स की ज़िन्दगी, व्यवहार और बोल-चाल को जानने की जिज्ञासा पढ़ने वाले के मन में रहती है।

पात्रों के मुताबिक ही पूरे उपन्यास में टपोरी भाषा का इस्तेमाल हुआ है जिसमें हास्य का पुट है। बड़े संगीन दृश्यों में भी पात्रों के सेंस ऑफ़ ह्यूमर ने पाठकों के लिए एक मसाले का काम किया है। जीतसिंह और उसके दोस्त गाइलो के बीच की बातचीत हमेशा रोचक रही है। एक नमूना देखिए-

“मैं एक टेम एक मैगजीन में एक शायर का शेर पढ़ा…”
“शायर बोले तो? शेर बोले तो? टाइगर तो नहीं होना सकता!”
“शायर बोले तो पोएट। शेर बोले तो पोएट का कपलेट।”
“ओह? अभी फालो किया मैं। क्या पढ़ा?”
“किसी को सब कुछ नहीं मिलता। किसी को ये मिलता है तो वो नहीं मिलता, वो मिलता है तो ये नहीं मिलता।”
“ये साला पोएट्री?”
“नहीं। वो उर्दू में। तेरे वास्ते ईजी कर के बोला।”

दूसरे गैंग के छोटे गुंडों की कुछ बेवकूफाना हरकतें और डॉन-बॉस लोगों के व्यंग्य भी बड़े सटीक ढंग से इस्तेमाल किए गए हैं।

उपन्यास की पृष्ठभूमि चूंकि अंडरवर्ल्ड और टपोरी लोगों की कहानी है, इसलिए उनसे जुड़े सभी संभावित धंधों और पात्रों में कुछ कॉल गर्ल्स की भूमिका भी है, लेकिन पोपुलर साहित्य की आम अवधारणा के विरुद्ध कहीं भी इन पात्रों या सेक्स सीन्स को भुनाने की कोशिश नहीं की गयी। बातचीत में छोटी-मोटी चुहल और मस्ती के अलावा ऐसा कुछ नहीं है, जिसे ‘थोपा’ हुआ कहा जा सके। यह मेरा सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखा गया पहला उपन्यास था, लेकिन मैंने कहीं पढ़ा था कि उन्होंने अपने पूरे साहित्य में वल्गर चीज़ों से हमेशा परहेज़ किया है।

कहानी का सम्पूर्ण प्रभाव बॉलीवुड की एक गैंगस्टर मूवी का ही रहा है। पढ़ते वक़्त हमेशा यह सोचता रहा कि इस पर अगर कभी कोई फिल्म बनी तो अच्छी बनेगी। कहानी के मोड़, ट्विस्ट और अंत सभी में एक उम्दा स्क्रिप्ट की खासियत हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। ओवरऑल एक मनोरंजक और मज़े से भरी हुई किताब जिसे गंभीर साहित्य से एक ब्रेक लेने के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

अंत में बताता चलूँ कि मुम्बईया शब्दावली में ‘इकसठ माल’ का अर्थ होता है ‘खरा माल’। यह भी पाठक जी ने किताब के अंत में पाठकों की सुविधा के लिए दिया हुआ है।

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पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!

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