मैं और तुम,
तुम और मैं,
यानी हम दोनों
एक दिन खो जाएँगे

ठीक वैसे, जैसे खो जाते हैं
मेरे सारे सवाल, तुम्हारे सारे जवाब
दो चार होने पर,
जैसे खो जाते हैं
हमारे सपने, टूटे हुए तारे
और सतरंगी इंद्रधनुष

जैसे खो गया
अम्मा के हाथों से जाँगर,
पुराना बरगद, कुआँ ,
और आम वाली बगिया का मचान

जैसे खो जाता है
आकाश का प्रतिबिम्ब,
सुषुप्ति के बाद आलस्य
और लोगों का वज़ूद
अपनी जड़ें भुला देने पर

जैसे खो गईं
कई आदिम लिपियाँ, भाषाएँ,
सभ्यताएँ और प्रथाएँ

जैसे खो गए कई जहाज़
बरमूडा ट्राएंगल में,
जैसे खो जाती हैं
बच्चों के बॉक्स से पेंसिलें
और मेरी कई नज़्में
मकानों की अदल-बदली में

ठीक ऐसे ही
किसी दिन खो जाएँगे हम।
खोना ही है हमारी नियती
खोना ही है हमारा धर्म।

(2017)

कुशाग्र अद्वैत
कुशाग्र अद्वैत बनारस में रहते हैं, इक्कीस बरस के हैं, कविताएँ लिखते हैं। इतिहास, मिथक और सिनेेमा में विशेष रुचि रखते हैं। अभी बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से राजनीति विज्ञान में ऑनर्स कर रहे हैं।