जीवन और कविता, दोनों सहोदर होंगे किसी जन्म,
एक-सी दोनों की ही प्रवृत्ति, एक-से चालचलन,
इनका धर्म निर्भर करता है पानी के उस एक बवंडर पर,
जो अट्टहास करते हुए फूटता है उंगली भर के छिद्र से,
जो शायद प्रकाशकण रहा होगा इस दीवार के उस पार, अपने पिछले जन्म में,
और उसके पिछले जन्म इसी दीवार के नीचे दबा हुआ बीज।

कविता स्थिर नहीं हो सकती, जीवन स्थिर नहीं हो सकता,
कविता, रेगिस्तान में सरकता साँप है..
कविता, पत्थरों की नाक पर सिंदूर रगड़ती सास है..
और कविता जंगलों में गश्त लगाता हुआ चौकीदार भी है..
कविता हर रूप में गति को पाती है,
और ठीक ऐसा ही करता है जीवन भी!

पानी को तालाब में जमा करो या पत्तों पर या मुट्ठीयों में,
इस पानी से कविता कभी नहीं फूट सकती,
पर हो सकता है शायद जब हवा चले,
और इस सीमित दायरे में एक दूसरे से टकराएं,
पानी के अणु और कतारबद्ध हो आपस में खेलने लगें पकड़म-पकड़ाई,
तब जीवन दम लेगा, तब कविता जन्म लेगी!

हालांकि कुछ पल ऐसे भी आते होंगे
जब जम जाते होंगे शब्द, जीवन थरथराने लगता होगा,
कविताएं रुककर चीखने लगती होंगी, और उसे पढ़ने वाला छटपटाने लगता होगा,
ये कुछ वैसे पल होते होंगे जब इन्हें लिखने वाला खुद को मुक्त कर देता होगा
अपनी ‘इंसानी पकड़’ से।

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