कल रात स्वप्न में कविताएँ आईं,
उदास थीं, थकी हुई और थोड़ी बेचैन भी,
कहने लगीं ― अब उनका पता बदल गया है,
अब वे काव्य गोष्ठियों में नहीं जातीं।
लगभग गरियाने के स्वर में बताने लगीं-
उनका फिलिस्तीन से कोई वास्ता नहीं,
उनको पाकिस्तान से कोई दिक्कत नहीं,
उनको कोई मंदिर नहीं बनवाना।
वे बैठे-बैठे खा-खाकर ऊब चुकी थीं,
रोज़गार की तलाश में थीं।
लेकिन,
मनरेगा वालों के पास
उनके लायक कोई काम नहीं था।
कविताएँ
भूखी-प्यासी,
एक खेत में गईं,
पसीने में तर एक मज़दूर से काम माँगा।
ख़ैर, मज़दूर दिलदार था,
कविताओं को घास छीलने का काम दिया,
कविताएँ बेमन से ही,
यह काम करने लगीं।
(स्साला…कविताओं का मूड स्विंग बहुत होता है )
वे भटकने लगीं,
भटकते-भटकते,
रोम, पेरिस, बेल्जियम,
येरुशलम, लुम्बिनी,
दिल्ली, मुम्बई,
सब जगह घूम आईं।
अब उनको एकांत चाहिए था।
पहले-पहल मणिकर्णिका गईं,
पर, वहाँ मुर्दा शांति थी;
कविताओं को यह भी रास नहीं आया।
कविताएँ अपनी व्याकुलता सहेज
एक नवयौवना के हृदय में गईं,
और उसको सम्मोहित कर,
उसका ब्रेक-अप करवा दिया।
फिर वे
किसी साधू की कुटिया का छप्पर,
किसी वेश्या का लावण्य,
बच्चों के खटोले की रस्सी,
गोल्ड फ्लेक की डिबिया,
और कबाड़ी की साइकिल की चैन बनीं।
अंतोगत्वा,
उन्होंने स्वप्न के देव को रिश्वत दी,
और स्वप्न बन कर मेरी नींद में आईं।
ye bhi behatareen…….. bane raho kavi mitr