‘Kehna Chahti Hoon’, a poem by Niki Pushkar

जब भी मैं कहती हूँ कि
जो मन कहे,
वही करना चाहिए
मेरे मन की लालसाएँ
आश्चर्य से मेरी ओर देखती हैं

जब भी कहती हूँ कि
कुछ भी हो,
इच्छाओं को दबाकर नहीं रखना चाहिए
कह देना चाहिए
मेरी दबी इच्छाएँ मुझसे रूठ जाती हैं

जब भी मैं कहती हूँ कि
संकोच बिल्कुल त्याग देना चाहिए
मेरे अन्तस का संकोची खीझ उठता है

जब भी मैं कहती हूँ कि
यदि प्रेम है,
तो ज़ाहिर कर देना चाहिए
मेरे हृदय में दुबका प्रेम
मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखता है

आज मैं अपने
मन, इच्छा, संकोच और प्रेम
सबसे कहना चाहती हूँ…
मैं तुम्हारी अपराधी हूँ,
मैने तुम्हें क़ैदी सा रखा अपने अन्दर
खुलकर कभी जिया नहीं
यह टीस मुझे बेचैन करती है
अब मैं इस पीड़ा से मुक्त होना चाहती हूँ
अब मैं तुमको स्वतंत्र करना चाहती हूँ…

– निकी पुष्कर ०४/०९/२०१९

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निकी पुष्कर
Pushkarniki [email protected] काव्य-संग्रह -पुष्कर विशे'श'

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