‘Khwab’, a poem by Shahbaz Rizvi

सुब्ह दम ख़्वाब के हिसार में सोया हुआ बच्चा
जब अपने हाथ से तारों के चेहरे को छुपाता है
जब अपनी जेब में सब बादलों के टुकड़े भरता है
जब अपनी आँख पे सूरज की किरणों को सुलाता है
अजब इक नक़्श बनता है,
कि उसके होंठों की इर्तिआश में ये दुनिया फैलती जाती है
मगर फिर आँख खुलते ही मनाज़िर मरते जाते हैं
अजब से शोर कानों की समाअत तोड़ देते हैं
उठो स्कूल जाना है, उठो अब उठ भी जाओ
तुम्हें मालूम है सूरज कहाँ तक आन पहुँचा है
ये दुनिया तुमसे कितनी दूर भागी जा रही है
अगर तुम तेज़ न दौड़े तो ये दुनिया तुम्हारी दस्तरस में कैसे आएगी
वो बच्चा मुस्कुराके ख़्वाब की परतें हटाता है
फिर अपनी आँख मलते धीरे धीरे गुनगुनाता है
किसे समझाऊँ कि ये दुनिया जिसे मैं ने अभी आज़ाद छोड़ा है
ज़रा सी आँख कर लूँ बंद तो फिर मुट्ठी में बैठी हो।

यह भी पढ़ें:

मुक्तिबोध की कहानी ‘काठ का सपना’
अमृता प्रीतम की कहानी ‘एक जीवी, एक रत्नी, एक सपना’
विक्रांत मिश्र की कहानी ‘पुरनम आँखों के ख़्वाब’

Recommended Book:

 

Previous articleवो
Next articleहम दोनों

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here