‘मैं’ सबका मैं है
वैसे ही ‘तुम’ सबका तुम है

लेकिन मैं कहाँ हूँ
कहाँ हूँ मुझे जान लेना है
तुम मेरी परेशानी
अगर नहीं जानते तो तुम्हारी हानि क्या
अगर जान जाओगे तो उससे लाभ क्या
हानि, लाभ वैसे दो शब्द हैं
जिनका हाट-बाट और घर-घर में चलन है
तुम अपने में मगन
अपनों को देखते हो
इसी से तुम्हारा मैं
जो तुम्हारा जाना-पहचाना तुम होता है
अपना कर लेता है

लेकिन मैं कहाँ हूँ
मैं तुम्हारा अपना तुम नहीं
तभी दृष्टि तुम बचाते हुए
कहीं और जाते हो
पाँवों में जल्दी मैं देखता हूँ
अनजाने इतना हो जाता है
तुम कहीं जाते हो
कोई काम करते हो
किसी से दो बातें सुनते हो
दो बातें कहते हो
कोई ठान ठानते हो
चिन्ता में पड़ते हो
कोई ख़ुशी आती है
कोई दुःख होता है
मैं भी आसपास कहीं होता हूँ
और तुम्हारी साँसों की भाषा समझता हूँ
शुद्ध रूप देता हूँ, कवि हूँ
तुम भी यह जानते हो कवि क्या होता है
वह कैसे खाता है
कैसे संसार उसका चलता है
तुमको मालूम नहीं
फ़ुर्सत भी तुम्हें कहाँ यह सब मालूम करो
होगा कवि कोई कहीं
मिहनत तुम्हारी अकेले की नहीं है
मेरा भी साझा है, हाथ है
और मनबहलावा तुम्हारा अकेला नहीं
मेरा भी साथ है
और जो तुम्हारा भोग होता है
मेरा भी होता है
और तुमने कब सोचा वह केवल तुम्हीं हो
जिससे मेरा मेरे मन का सम्वाद है
कभी पूछकर देखो मुझसे
मैं कहाँ हूँ
मैं तुम्हारे खेत में तुम्हारे साथ रहता हूँ
कभी लू चलती है, कभी वर्षा आती है, कभी जाड़ा होता है
तुम्हें कभी बैठा भी पाया तो ज़रा देर
कभी चिलम चढ़ा ली, कभी बीड़ी सुलगायी
फिर कुदाल या खुरपा या हल की मुठिया को लिए हुए
कभी अपने-आप कभी और कई हाथों को लगाकर
काम किया करते हो

जब तुम किसी बड़े या छोटे कारख़ाने में
कभी काम करते हो किसी भी पद पर
तब मैं तुम्हारे इस काम का महत्त्व ख़ूब जानता हूँ
और यह भी जानता हूँ – मानव की सभ्यता
तुम्हारे ही खुरदरे हाथों में नया रूप पाती है।
और यह नया रूप आनेवाले कल के किसी नये रूप की
भूमिका है और यह भूमिका भविष्य का
संविधान बनती है, वैसे ही जैसे समाज सारा आज का
आदिम समाज का विकास है,
आदिम समाज की अनेक बातें आज भी क्या नहीं हैं
व्यक्ति या समूह या समाज में
कहीं किसी जनपद में, राज्य में, राष्ट्र में
और फिर राष्ट्रों में
तुम्हें इतना और यह सब सोचने-समझने की
चिन्ता नहीं, चिन्ता का भार तो तुमने कहीं और
डाल दिया है और इस भार को उठानेवाले
दूसरे हैं जो तुम्हारे और मेरे बीच
अपने आप आ जाते हैं, आया करते हैं

मैं तुम से, तुम्हीं से, बात किया करता हूँ
और यह बात मेरी कविता है

कविता में अपने साथ देखो मैं कहाँ हूँ
नया मोड़ सामने है, जीवन जिस ओर चले उस पर है
अब पुरानी दीवारें गिरती हैं और नयी उठती हैं
इनको बनानेवाले हाथ मुस्कराते हैं, गीत जो उभर आया
उसे गुनगुनाते हैं, यही हाथ और कहीं कितने ही हाथों के साथ
कहीं सड़कें बनाते हैं, नगर बसाते हैं और ऊबड़खाबड़ को
पट पर कर देते हैं जिससे जो पैर अभी नन्हे-नन्हे
और कोमल-कोमल हैं, जब सयाने हो जाएँ अपनी राह
दृढ़ता से तय करें, चुपचाप सिर डाले कहीं बैठ जाने का
समय अब नहीं है, रोज़ी हाथ-पाँव मारा जाए तब
चलती है नियम से, ऐसा ही सिलसिला है

मानव समाज नर-नारी के हाथों से
व्यक्तियों, समूहों, वर्गों, देशों का रूप लिया करता है
व्यक्ति ही तो मूल है यहाँ वहाँ जो कुछ है
लेकिन व्यक्ति कितना असहाय है अकेले में
मेले में सभी कितने अलग-अलग होते हैं
परिवार में भी राग व्यक्ति का अलगाया रहता है
जहाँ लोग एक-दूसरे के पास, बहुत पास होते हैं
एक-दूसरे को ख़ूब जानते-पहचानते हैं, एक-दूसरे की
बात-व्यवहार देखते हैं, अपना मत रखते हैं
कभी-कभी ऐसी घनिष्ठता स्वतन्त्रता को आदर दे तो कितना
द्वन्द्व फिर दिखायी देगा किसी को
हमारी स्वतन्त्रता औरों की स्वतन्त्रता के साथ है

भूलें हो जाती हैं भूलें ये अगर यह ठीक हो जाया करें
किसी तरह कर दी जाएँ तो सारी पृथिवी पर
शान्ति खेलने लगे, शान्ति-पाठ जीवन का सत्य हो
नहीं तो पाठ पाठ ही रहेगा, कभी शान्ति का
स्वरूप नहीं दिखेगा, यही तो एक बाधा है
शान्ति के लिए लड़ाई होती है लड़नेवाले कहते हैं

मैं बहुत अलग कहीं और हूँ
खोज लो मैं कहाँ हूँ

इस पृथिवी की रक्षा मानव का अपना कर्तव्य है
इसकी वनस्पतियाँ, चिड़ियाँ और जीव-जन्तु
उसके सहयात्री हैं, इसी तरह जलवायु और सारा आकाश
अपनी-अपनी रक्षा मानव से चाहते हैं
उनकी इस रक्षा में मानवता की भी तो रक्षा है
नहीं, सर्वनाश अधिक दूर नहीं
दिन-रात प्रातः-सन्ध्या कितने अलग-अलग रूपों में
आते हैं, कोई इन्हें देखे या अनदेखा कर जाए,
इनकी आपत्ति का पता नहीं चलता
मानव का सारा सौन्दर्य-बोध जब विकास करता है
तब इनका अपना क्या योगदान रहता है
आँखें ही इसे देख सकती हैं
मैं उसी समग्रता को देखने का आदी हूँ
खण्ड में समग्र नहीं आता, नहीं आ पाता
खण्ड सामने हो तो अखण्ड का महत्त्व क्या
अच्छी-अच्छी बातों के अर्थ बदल जाते हैं
मन किसी का बदल जाए तो सबकुछ एकाएक
उलटपुलट जाता है
मैं सबके साथ हूँ, अलग-अलग सबका हूँ
मैं सब का अपना हूँ, सब मेरे अपने हैं
मुझे शब्द-शब्द में देखो
मैं कहाँ हूँ…

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त्रिलोचन
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे।

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