मीर जी घर से जब भी निकलो
क़श्क़ा खींचो
दैर में बैठो
या अब तर्क इस्लाम करो
नाम तो है पहचान तुम्हारी
किस किस को समझाओगे
अब तस्बीह के बिखरे दाने
किस ज़ुन्नार से बाँधोगे
क़दम क़दम सौ सौ दीवारें
दीवारों में फेर कहाँ
अब तो दैर के सारे रस्ते
दैर से जाकर मिलते हैं
अब तो हरम के दरवाज़े भी
हरम पे ही बस खुलते हैं

मीर जी, घर से जब भी निकलो
शहर का नक़्शा जेब में हो
भूल भटककर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा मत एक करो
अपना मज़हब, अपना नाम और अपनी बोली याद रहे
भाड़ में जाए सारी दुनिया
अपना घर आबाद रहे..