एक चिड़े चिड़िया ने नई रौशनी की एक ऊंची कोठी में अपना घोंसला बनाया था। उस कोठी में एक मुसलमान रहते थे जो विलायत से बैरिस्ट्री पास करके और एक मेम को साथ लेकर आए थे। उनकी बैरिस्ट्री कुछ चलती न थी। मगर घर के अमीर ज़मींदार थे, गुज़ारा ख़ूबी से हुआ जाता था। विलायत से आने के बाद ख़ुदा ने उनको एक लड़की भी इनायत की थी जो माशा अल्लाह लंबी फुर्ती थी और बाप की तरफ़ से मुसलमान और माँ की तरफ़ से मिस बाया थी।

चिड़े-चिड़िया ने खपड़ैल के अंदर एक सुराख़ में घर बनाया। तिनकों और सूत का फ़र्श बिछाया। ये सूत पड़ोस की एक बुढ़िया के घर से चिड़िया लाई थी। वो बेचारी चरखा काता करती थी। उलझा हुआ सूत फेंक देती, तो चिड़िया उठा लाती और अपने घर में उसको बिछा देती।

ख़ुदा की क़ुदरत एक दिन अंडा फिसल कर गिर पड़ा और टूट गया। एक ही बाक़ी रहा। चिड़े-चिड़िया को उस अंडे का बड़ा सदमा हुआ। जिस दिन अंडा गिरा है तो चिड़िया घोंसले में थी। चिड़ा बाहर दाना चुगने गया हुआ था। वो घर में आया तो चिड़िया को चुप-चुप और मग़्मूम देखकर समझा मेरे देर में आने के सबब ख़फ़ा हो गई है।

लगा फ़ुदक-फ़ुदक कर चूँ-चूँ चीं, चिड़चूँ, चिड़चूँ, चीं चिड़चूँ, चूँ, चिड़चूँचिड़चूँ , चूँ करने, कभी चोंच मार कर गुदगुदी करता। कभी ख़ुद अपने परों को फैलाता मटकता। नाचता और चिड़िया की चोंच पर अपनी चोंच मोहब्बत से रखता। मगर चिड़िया उसी तरह फूली उफरी ख़ामोश बैठी रही। उसने मर्द ज़ात की ख़ुशामद का कुछ भी जवाब न दिया। चिड़ा समझा बहुत ही ख़फ़गी है। मिज़ाज हद से ज़्यादा बिगड़ गया है। ख़ुशामद से काम न चलेगा। मुझ मर्द की कितनी बड़ी तौहीन है कि इतनी देर ख़ुशामद दरआमद की। बेगम साहिबा ने आँख उठाकर न देखा, ये ख़याल करके चिड़ा भी मुँह फेर कर बैठ गया और चिड़िया से बेरुख़ होकर नीचे बैरिस्टर साहब को झांकने लगा जो अपनी लेडी के सामने आराम-कुर्सी पर लेटे थे और हंसी मज़ाक़ कर रहे थे। चिड़े ने ख़याल किया ये आदमी कैसे ख़ुशनसीब हैं। दोनों का जोड़ा ख़ुश-व-बश्शाश ज़िंदगी काट रहा है। एक मैं बदनसीब हूँ। सवेरे का गया, गया दाना चुगकर अब घर में घुसा हूँ। मगर चिड़िया साहिबा का मिज़ाज ठिकाने में नहीं है। काश मैं चिड़ा न होता और कम से कम आदमी बनाया जाता।

चिड़ा इसी उधेड़ बन में था कि चिड़िया ने ग़मनाक आवाज़ निकाली। चूँ। चिड़े ने जल्दी से मुड़कर चिड़िया को देखा और कहा चूँ चूँ चिड़चूँ चूँ। क्या है। आज तुम ऐसी चुप क्यों हो। चिड़िया बोली अंडा गिर के टूट गया।

अंडे की ख़बर से पहले तो चिड़े को ज़रा रंज हुआ। मगर उसने सदमे को दबाकर कहा। तुम कहाँ चली गईं थीं। अंडा क्योंकर गिर पड़ा।चिड़िया ने कहा मैं उड़कर ज़रा चमन की हवा खाने चली थी झपटा के सदमा से अंडा फिसल गया। ये बयान सुनकर चिड़ा आपे से बाहर हो गया। उसके मर्दाना जोश में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ और उसने कड़कदार गरजती हुई चूँ-चूँ में कहा, फूहड़, बद-सलीक़ा, बे-तमीज़, तू क्यों उड़ी थी। तुझको चमन की हवा के बगै़र क्या हुआ जाता था। क्या तू भी उस गोरी औरत की ख़सलत सीखती है जो घर का काम नौकरों पर छोड़कर हवा ख़ोरी करती फिरती है। तू एक चिड़िया है। तेरा कोई हक़ नहीं है कि बगै़र मेरी मर्ज़ी के बाहर निकले। तुझको मेरे साथ उड़ने और हवा खोरी करने का हक़ है। आज कल तू अंडों की नौकर थी। तुझे यहाँ से हटने का इख़्तियार न था। तूने मेरे एक अंडे का नुक़्सान करके इतना बड़ा क़ुसूर किया है कि उसका बदला कुछ नहीं हो सकता। तूने मेरे बच्चे को जानबूझ कर मार डाला। तूने ख़ुदा की अमानत की क़द्र न की जो उसने हमको नस्ल बढ़ाने की ख़ातिर दी थी। मैं तो पहले दिन मना करता था कि अरी कमबख़्त इस कोठी में घोंसला न बना। ऐसा न हो उन लोगों का असर हम पर भी पड़ जाए। हम बेचारे पुराने ज़माने के देसी चिड़े हैं। ख़ुदा हमको नए ज़माने के चिड़िया चिड़े से भी बचाए रखे। क्योंकि फिर घर के रहते हैं न घाट के। मगर तू न मानी और कोठी में रहूँगी, कोठी में घर बनाऊँगी, ये कहकर मेरा नाक में दम कर दिया। अब ला मेरा बच्चा ला। मैं तुझसे लूँगा। नहीं तो तुम्हारे ठोंगों के कुचला बना दूँगा। बड़ी साहिब निकलीं थीं हवा खाने, अब बताऊँ तुझको हवा खाने का मज़ा।

चिड़िया पहले तो अपने ग़म में चुपचाप चिड़े की बातें सुनती रही। लेकिन जब चिड़ा हद से बढ़ा तो उसने ज़बान खोली और कहा… बस, बस। सुन लिया। बिगड़ चुके, ज़बान को रोको। अंडे-बच्चे पालने का मुझी पर ठेका नहीं है, तुम भी बराबर के शरीक हो। सवेरे के गए गए ये वक़्त आ गया। ख़बर नहीं अपनी किस सगी के साथ गुलछर्रे उड़ाते फिरते होंगे। दोपहर में घर के अंदर घुसे हैं और आए तो मिज़ाज दिखाने आए। अंडा गिर पड़ा मेरे पंजे की नोक से मैं क्या करूँ। मैं क्या अंडों की ख़ातिर अपनी जवान जमान जान को घुन लगा लूँ। दो घड़ी बाहर की हवा भी न खाऊँ। सुबह से ये वक़्त आया। एक दाना हलक़ से नीचे नहीं गया। तुमने फूटे मुँह से ये न पूछा कि तूने कुछ थोड़ा कुछ निगला। या मिज़ाज ही दिखाना आता है। अब वो ज़माना नहीं है कि अकेली चिड़िया पे सब बोझ था। अब आज़ादी और बराबरी का वक़्त है। आधा काम तुम करो आधा मैं करूँ। देखते नहीं मेम साहिबा को वो तो कुछ भी काम नहीं करतीं। साहब को सारा काम करना पड़ता है और बच्चे को आया खिलाती है। तुमने एक आया रखी होती, मैं तुम्हारे अंडे बच्चों की आया नहीं हूँ।

चिड़िया की इस तक़रीर से चिड़ा सुन्न हो गया और कुछ जवाब न बन पड़ा। बेचारा ग़ुस्से को पीकर फिर ख़ुशामद करने लगा और उस दिन से चिड़िया के साथ आधी ख़िदमत अंडे की बांट कर उसने अपने ज़िम्में ले ली।

मिस चिड़िया की पैदाइश-

एक अंडा तो टूट चुका था। दूसरे अंडे से एक बच्चा निकला जो मादा या’नी चिड़िया थी। जब ये बच्चा ज़रा बड़ा हुआ और उसने मेम साहिबा के बच्चे को देखा कि वो काठ के घोड़े पर सवार होता है। घड़ी-घड़ी दूध पीता है। टब में बैठकर नहाता है। नए-नए ख़ूबसूरत कपड़े पहनता है तो उस चिड़िया ज़ादी ने भी बाप से कहा:

चीं-चीं। चीं। अब्बा मुझको भी घोड़ा मंगा दो। अब्बा मैं भी टब में नहाऊँगी। अब्बा मुझको भी ऐसे रंग बिरंग के कपड़े लाकर दो।

चिड़े ने चिड़िया से कहा ले सुन। देखा मज़ा कोठी में घर बनाने का। अब ला। अपनी लाडली के वास्ते घोड़ा ला। टब मंगा। कपड़े बना।

चिड़िया ने कहा- देखो फिर वही लड़ाई की बातें निकालीं। एक की तो तुम्हारी इस किल-किल से जान गई। ये निगोड़ी बची है। तुम उसको भी नहीं देख सकते। बच्चा है। कहने दो। ये क्या जाने हम ग़रीब हैं और ये चीज़ें नहीं ला सकते। बड़ी होगी तो आप समझ लेगी कि चिड़ियों को आदमियों की ड्रेस से क्या सरोकार।

मिस चिड़िया ने माँ की बात सुनकर कहा, वाह बी अम्माँ वाह, तुम ग़रीब थीं, तुम चिड़िया थीं तो इस अमीर की कोठी में आकर क्यों रही थीं। गाँव के छप्पर में घर बनाया होता। मैं तो हर्गिज़ न मानूँगी और मेमसाहब के बच्चे की सी सब चीज़ें मंगा कर रहूंगी। न लाओगी तो लो मैं गिरती हूँ और मरती हूँ। पाप काटे देती हूँ। न ज़िंदा रहूंगी न तुम पर मेरा बोझ होगा।

चिड़े चिड़िया ने घबरा कर कहा। हे… हे…। ऐसा ग़ज़ब न कीजियो। अच्छा-अच्छा हम सब कुछ मंगा देंगे। ये कहकर और मिस चिड़िया को दिलासा देकर दोनों ने चोंच से चोंच मिलाई और फूट-फूट कर रोना शुरू किया। रोते थे और ये कहते थे। हाय अच्छों की सोहबत अच्छा बनाती है और बुरों की सोहबत बुरा कर देती है। ये बैरिस्टर साहब अच्छे सही मगर उनकी सोहबत से हमारा तो सत्यानास हो गया। हाय हमारी लाडली हाथों से निकल गई। हाय यहाँ तो और कोई चिड़िया भी नहीं जो हमारे दुख में शरीक हो। चिड़े और चिड़िया रोते थे और मिस चिड़िया क़हक़हा लगाती थी कि नए ज़माने की औलाद ऐसी ही होती है।

ख़्वाजा हसन निज़ामी
ख्वाजा हसन निज़ामी (1873 -1955) चिश्ती इस्लामी आदेश के एक भारतीय सूफी संत और प्रसिद्ध उर्दू निबंधकार व व्यंग्यकार थे। उन्होंने 60 से अधिक किताबें लिखीं, उन्होंने 1857 के युद्ध की घटनाओं को भी लिखा था।