‘पाकिस्तान का मतलब क्या’ – एक टिप्पणी

असग़र वजाहत की किताब ‘पाकिस्तान का मतलब क्या’ पर आदित्य भूषण मिश्रा की एक टिप्पणी

मैं अभी पिछले दिनों, असग़र वजाहत साब की क़िताब “पाकिस्तान का मतलब क्या” पढ़ रहा था. मेरे ख़याल में ये क़िताब ज़यादातर हिन्दुस्तानियों को पढ़नी चाहिए क्यूंकि इससे पड़ोसी मुल्क को समझने में आसानी होगी. आप ये जान पाएंगे कि आपने अपने अन्दर जो ख़याल बाँध रक्खा है, वो कितना सही या ग़लत है.

ये क़िताब, दोनों ही extreme को सिरे से खारिज़ करती है. एक तो उनकी कि जो ये सोचते हैं कि पाकिस्तान में हर दूसरा या तीसरा आदमी हाथ में बम लिए फिरता होगा, आवाम का जीना बिलकुल मुहाल होगा या कि लोग हमेशा हिंदुस्तान की बर्बादी की ही बात करते होंगे या फिर उनकी भी जो नहीं मानते कि हिंदुस्तान के हालात पाकिस्तान से बेहतर हैं.

हम अपने आस-पास देखते हैं कि बाज़ दफ़े जब दो भाइयों में अनबन होती है, ख़ास तौर पर ज़मीन को लेकर और वो आपस में बोलना भी बंद कर देते हैं तो उनके बच्चे जो झगडे से पहले आपस में खेला करते थे उनके लिए बड़ी मुश्किल पैदा हो जाती है. वो चाह कर भी अपने चचेरे भाइयों-बहनों से मिल नहीं पाते, उनके साथ खेल नहीं पाते और अगर ऐसा मुमकिन हुआ भी तो कई हिदायतों के साथ उन्हें मिलने दिया जाता है. मेरे ख़याल में दोनों मुल्कों के आवाम की यही हालत है. वो मिलना भी चाहें तो बहुत एहतियात बरतनी पड़ती है. असग़र साब एक जगह लिखते हैं कि जब वो बहावलपुर से गुज़र रहे थे तो उनका मन होता है कि उतर के घूम आएं ( दिल्ली में NSD बहावलपुर हाउस में ही स्थित है) लेकिन वीज़ा उन्हें इस बात की इजाज़त नहीं देता. इसी तरह सिंध के बिलकुल देहात में जाने की उनकी हसरत किसी भी तरह पूरी नहीं हो पाती. उन्होंने अपनी क़िताब में लिखा है-

“दोनों देशों की आंतरिक सुरक्षा को पूरी तरह मजबूत बनाए रखते हुए भी भारत-पाक वीज़ा नीति अधिक मानवीय हो सकती है. सौ तरह से वीज़ा की समस्या पर सोचा जा सकता है, लेकिन दोनों सरकारों में कुछ ऐसे तत्व हैं जो अपने या अपने समूह के लाभ के लिए दुश्मनी बनाए रखना चाहते हैं. दुश्मनी होगी तो हथियार ख़रीदे जाएंगे, हथियार खरीदे जाएंगे तो कमीशन बनेगा, सेना का महत्व रहेगा.”

अपनी क़िताब की शुरुआत में ही असग़र साब ये कहते नज़र आते हैं कि “मैंने धर्म के नाम का जितना सार्वजनिक प्रदर्शन पकिस्तान में देखा वैसा इस्लामी गणराज्य ईरान में भी नहीं देखा था. इसके अलावे घरों पर लगे रंग-बिरंगे झंडो के बाबत जब उन्होंने किसी से पूछा था, तो जवाब ये आया कि यहाँ धर्म और राजनीति एक-दुसरे से इतना घुल-मिल गए हैं कि कहाँ से क्या शुरू होता है और क्या कहाँ ख़त्म ये बताना मुश्किल है.” इस बात को आगे बढ़ाते हुए क़िताब के दूसरे हिस्सों में वो “ज़ियाउल हक़” द्वारा अपने फायदे के लिए पकिस्तान के “इस्लामाइजेशन” की बात करते हैं और साथ ही “तौहीने रिसालत” कानून की भी जिसके तहत “ब्लासफेमी” के लिए किसी को मार देना तक जाइज़ है. मैं ये हिस्सा पढ़कर यूँ डर जाता हूँ कि हम भी तो धर्म और राजनीति को मिलाने पे तुले हुए हैं तो क्या आज से १५-२० साल बाद हम भी उसी क़िस्म की मुश्किलात झेल रहे होंगे?

असग़र साब ने अपने सफ़र के दौरान हिंदुओं और मंदिरों के बाबत जानने की इच्छा की. लाहौर से मुल्तान और फिर मुल्तान से कराची पहुँचने के बाद उन्हें पहली बार कराची में हिन्दू मंदिर मिले. हालाँकि मुल्तान में एक “बाबरी मस्जिद घटना” के रिएक्शन में टूट चुका प्रह्लाद मंदिर ज़रूर अपनी बेचारगी की कहानी कह रहा था. हाँ तो मैं ये कह रह था कि मुझे ये बात बहुत हैरतनाक लगी कि हिन्दुओं की इतनी कम तादात के बावज़ूद, कराची के श्री रत्नेश्वर महादेव मंदिर में इन्हें (ग़ैर हिन्दूको,जबकी ये भारत से भी थे) जाने की इजाज़त किसी भी तरह नहीं मिली.

इस क़िताब में भाषाई कनफ्लिक्ट पर भी बहुत अच्छे तरीक़े से चर्चा की गयी है. मुल्क के तक़सीम के बाद हिंदी हमारी हुई और उर्दू उनकी. जैसे हमारे यहाँ अभी तक इलाक़ाई ज़बानों का हिंदी से नोक-झोंक चलता रहता है और फिर भी लोग हिंदी में लिखते रहते हैं उसी तरह वहां सिन्धी और पंजाबी वाले उर्दू से मुख़ालफ़त भी करते हैं और इक़बाल और फैज़ भी वहीँ से पैदा होते हैं.

इस क़िताब को पढ़ते हुए कई और दिलचस्प बातें पता चलती हैं, मसलन अख़बार और रिसाले वहां बहुत ज़ियादा मंहगे हैं, क्यूंकि उन्हें ढंग से विज्ञापन नहीं मिलते. पत्रकारों की हालत बेहद ख़राब है. अक्सर हिन्दुओं और ईसाईयों के नाम का भी पहला लफ्ज़ मुसलमानों के नाम की तरह होता है. आर्मी वालों का मज़ीद बोलबाला है. आवाम आज भी हिन्दुस्तानियों से बहुत मुहब्बत करती है, बल्कि हिंदुस्तान का नाम सुनकर कई लोग मुफ़्त में आपकी मदद करने को तैयार हो जाते हैं. कई पढ़े-लिखे लोग भी हिन्दुस्तान की तरक्क़ी को पसंद करते हैं. हाँ, इस बात से नाख़ुश ज़रूर रहते है कि एक साथ आज़ादी मिलने के बावज़ूद पाकिस्तान उस दर्ज़े की तरक्क़ी नहीं कर सका है. वहां के लोग आर्ट और कल्चर में हमसे ज़ियादा दिलचस्पी रखते हैं. मुल्तान में रुक्न-ए-आलम का मक़बरा है जो कि बेहद ख़ूबसूरत बना है और वहां की भाषा “सरायकी” कहलाती है (जिसे शायद आम लफ़्ज़ों में हम मुल्तानी कहते हैं). वहां की ट्रेनों की हालत बहुत ख़राब है और वो कैसी है उसके लिए असग़र साब ने बहुत ही मज़ाक़या लहजे में एक वाक़ए का ज़िक्र भी किया है.

आख़िर में, मुझे एक बात की शिक़ायत असग़र साब से ज़रूर रहेगी कि जब हर मौक़े की इतनी तस्वीरें उन्होंने कैमरे में क़ैद कीं तो कम स कम पांच-दस तस्वीरें तो क़िताब में भी शामिल करनी चाहिए थीं और दूसरी एक और बात जो मेरे दिमाग़ में आई वो ये के ये कहीं नहीं है कि ये सफ़र किस साल किया गया. हालाँकि First Edition- 2012 की है, ये “मुस्ताक़ अहमद युसूफी” साब से फैज़ पर हुए सेमिनार में मिलते हैं और उन्हें सुनते हैं, जिसका विडियो youtube पर 2011 में मिलता है और कई जगहों पर ये 2006-2007 तक के पाकिस्तान के हालात पर चर्चा करते हैं चुनांचे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि 2010 या 2011 में कभी गए होंगे लेकिन यही क़िताब जब तीस-चालीस साल बाद पढ़ी जाएगी तो ये पता करने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है.

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