अपने घर में मैं परम स्वतंत्र था। जैसे चाहे रहता, जो चाहे करता। मर्ज़ी आती जहाँ जूते फेंक देता, मन करता जहाँ कपड़े। जगह-जगह मेरी किताबें बिखरी रहतीं और लगभग हर कमरे में मेरी चीज़ें। कभी अचानक कहीं जाना होता तो मुझसे उस घर में मेरी कोई चीज़ नहीं ढूँढी जाती। हर चीज़ माँ मुझे ढूँढकर देती। मेरे जाने के बाद वह सारे घर से मेरी किताबें-कॉपियाँ, कपड़े, जूते, चप्पल, खिलौने समेटकर मेरे कमरे में रखती। लेकिन मेरे कमरे में भी किसी चीज़ की कोई निश्चित जगह नहीं होती। कमीज़ तकिए के नीचे तो किताब पलंग के पीछे। मोजे सन्दूक़ के नीचे तो घड़ी बाथरूम की शेल्फ़ पर। माँ ही मेरे कमरे की सफ़ाई भी करती। इतने घनघोर में वह सफ़ाई पता नहीं किस तरकीब से करती। मेरे लिए तो यह असम्भव ही होता।
यह लेकिन बचपन की बात है।
लड़कपन में चीज़ें बदल गईं। किसी एक लड़क दिन में मैं अपनी किसी चीज़ को ढूँढ रहा था और उसके न मिलने पर माँ पर चिल्ला रहा था। तब पिताजी ने मुझे डाँटा था।
“उस पर क्यों चिल्ला रहा है? जगह पर नहीं रख सकता अपनी चीज़ें? वह क्या तेरी नौकर है?”
पिता वैसे भी कम बोलते थे। मुझसे तो बहुत ही कम बोलते थे। मेरे बारे में अधिकांश सूचनाएँ वह माँ से प्राप्त करते थे—राकेश चला गया? राकेश आ गया? राकेश ने खाना खा लिया? राकेश सो गया? मुझसे वह किसी काम को भी नहीं कहते थे। मेरी स्वस्ति और स्वास्थ्य की, मेरी प्रसन्नता-अप्रसन्नता की पूरी चिंता करते हुए भी, मेरी गतिविधियों का, मेरे बड़े होते जाने का और मेरी बदलती ज़रूरतों का पूरा ध्यान रखते हुए भी उनका मुझसे सीधा सम्वाद बहुत कम था। लगभग नहीं ही था। पिताजी को मेरे चरित्र की चिंता रहती थी कि वह बिगड़ न जाए। वह चाहते थे माँ मेरे चरित्र पर नज़र रखे और वह बिगड़ता नज़र आए—मसलन पता चले कि मैं दोस्तों के साथ सिनेमा देखने लगा हूँ—तो तुरन्त पिता को सूचित करे।
मैं अपनी ज़रूरतों के बारे में भी माँ को ही बताता था। माँ, पिताजी को। पिताजी मेरे लिए जो चीज़ें लाते, माँ को देते, माँ मुझे। यदि मुझे फ़ीस जमा करनी है तो मैं माँ से कहूँगा—माँ पिताजी से—पिताजी माँ को पैसे देंगे—माँ मुझे। फ़ीस जमाकर मैं रसीद माँ को दूँगा—माँ पिताजी को—पिताजी देखकर माँ को लौटा देंगे—माँ कहीं सम्भालकर रख लेगी। इंकार और इसरार भी इसी तरह माँ की मार्फ़त होते थे— “उससे कहना अभी रुक जाए!”, “उससे कहना इन फालतू चीज़ों पर पैसा बिगाड़ने की बजाय अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे।” अब इसमें दाद-फ़रियाद की कोई गुंजाइश नहीं थी। कभी मैं ज़िद करता किसी चीज़ के लिए तो माँ पिताजी से कहती— “वो कह रहा है ज़रूरी है!” या “वो कह रहा है ये दिला दो फिर वो नहीं लूँगा!” पिताजी ऐसी फ़रियादें चुपचाप सुन लेते और मान जाते। संतुष्ट न होने के बावजूद कहीं से पैसा लाकर माँ के हाथ पर रख देते। कहाँ से? मुझे नहीं मालूम। कभी मालूम करने की कोशिश भी नहीं की।
पिताजी से सीधी बात सिर्फ़ परीक्षा के दिनों में ही होती। जब भी मेरा पेपर होता, वह शाम को ज़रूर पूछते—कैसा रहा? मैं कहता—ठीक रहा। पूरी परीक्षा-भर यह कैसा रहा, ठीक रहा चलता रहता। न एक शब्द कम, न एक शब्द ज़्यादा। फिर जब रिज़ल्ट आता, मैं प्रोग्रेस रिपोर्ट ले जाकर उन्हें दिखाता। यह काम माँ की मार्फ़त नहीं किया जा सकता था। वह चश्मा पहनकर बड़े ध्यान से प्रोग्रेस रिपोर्ट देखते और लौटा देते— “शाबाश! ख़ूब मेहनत करो!”
बस! नम्बर चाहे कम हों या ज़्यादा। नम्बर अक्सर अच्छे ही आते। पर मुझे लगता, इतनी मेहनत करना बेकार ही गया। कोई भी तो ख़ुश नहीं होता। एक बार एक पेपर में जान-बूझकर लापरवाही की और काफ़ी कम नम्बर आए। देखें अब पिताजी क्या कहते हैं! प्रोग्रेस रिपोर्ट दिखाते समय धक्-धक्! हाँ, वह उस जगह अटके, पर बस, और कुछ नहीं। वही— “शाबाश! ख़ूब मेहनत करो!” जी किया माँ से पूछूँ—इस बार मेरे रिज़ल्ट पर पिताजी ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? नहीं पूछा। जाने दो। जब इनको ही कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता तो मैं ही क्यों पूछूँ!
इसलिए पिताजी की डाँट का असर हुआ। मैंने अपना घर अपने कमरे में ही समेट लिया। सारे घर से बीन-बटोरकर अपनी चीज़ें ले आया और कमरे में ठूँस लीं। तब ध्यान आया कि यहाँ काफ़ी अराजकता और अव्यवस्था है। एक दिन डटकर-जुटकर अपने कमरे की सफ़ाई कर डाली और सारा कमरा अपने हिसाब से जमाया। अपनी सुविधा के हिसाब से। किताबें, कपड़े, जूते, बिस्तर सब। उस दिन मेरे कमरे से आधा सेर धूल-मिट्टी और मैले कपड़ों का एक ढेर निकला। ये ऐसी जगह दबे-छिपे थे कि माँ को भी दिखायी नहीं दिए थे। बाहर नल पर जाकर सारे कपड़े धो डाले और रस्सी पर डाल दिए। माँ चुपचाप देखती रही। पहली बार कपड़े धोए थे, अच्छे नहीं धुले थे, पर माँ ने यह नहीं कहा—छोड़ दे! मैं धो दूँगी। वह कहती भी तो मैं छोड़ता नहीं। फिर मैं अपने कमरे में आकर पलंग पर लेट गया। यह दिन का समय था और पिताजी घर पर नहीं थे। ऐसे समय मुझे लेटना होता तो मैं या तो माँ के कमरे में या ड्राईंगरूम के दीवान पर वहाँ के गाव तकियों की सारी व्यवस्था बिगाड़ते हुए लेटा करता था। पर आज अपने कमरे में ही लेटा। वहाँ काफ़ी ठण्डक और अँधेरा था। मैंने सोचा काश! कमरे के पीछे की तरफ़ एक खिड़की और होती जहाँ से मैं पलंग पर लेटा-लेटा ही बाहर का दृश्य देख सकता। नीम का पेड़ और गिलहरियाँ… गाय का रम्भाना और दूर किसी लड़की का दौड़ना… चील की ऊँची उड़ान और दूर तक पसरे ऊँघते खेत!
मैंने माँ को मेरे कपड़े धोने और मेरा कमरा साफ़ करने को मना कर दिया। उसने मान लिया। शायद उसने सोचा होगा, लड़का कमरे में कोई प्रेमपत्र या सिनेमा के गानों की किताब वग़ैरह पकड़े जाने से शर्माता होगा। ऐसी कोई बात नहीं थी। तो कमरा अस्त-व्यस्त रहता। चीज़ें समय पर नहीं मिलतीं। पर फिर थोड़ा ढूँढने पर मिल भी जातीं। हफ़्ते में एक बार तो मैं सफ़ाई कर ही लेता।
धीरे-धीरे कमरा मेरा और मैं कमरे का अभ्यस्त हो गया। पत्रिकाओं से चित्र काटकर मैंने दीवारों पर चिपका लिए। पिताजी को यक़ीनन यह पसन्द नहीं आता। पर वह क्या कर सकते थे? कमरा तो मेरा था!
पिताजी की दुनिया वैसी ही चुप और दूरस्थ थी। मेरी पहुँच से परे। माँ की मार्फ़त। पहले मेरे दोस्त सीधे ड्राईंगरूम से ही आते। ‘नमस्ते चाचाजी’ आदि करते हुए। अब वे पीछे के दरवाज़े से सीधे मेरे कमरे में आ जाते। बग़ैर ‘नमस्ते चाचाजी’ आदि की बाधा को लाँघे। यदि एक से अधिक दोस्त होते और कुछ गाना-बजाना, हँसी-मज़ाक़, या लड़कियों की बातें जैसा कुछ होता तो मैं धीरे से कमरे का दरवाज़ा उढ़का देता। एक दोस्त सिगरेट पीता था। उसे मैं कमरे में सिगरेट नहीं पीने देता। माँ तो आ ही सकती है, और बात पिताजी तक पहुँच सकती है। माँ दोस्तों के लिए पोहे बनाती तो दरवाज़े के बाहर तक लाकर खड़ी हो जाती। मुझे पुकारती और ट्रे पकड़ा देती। भीतर नहीं आती।
मैं अपने घर की अपने दोस्तों के घर से तुलना करता। मेरे सारे दोस्तों के घर में अलग तरह का माहौल था। वहाँ हमें बड़ों से छिपकर बातें नहीं करनी पड़ती थीं। वहाँ बड़े हमारी बातों से डिस्टर्ब महसूस करने की बजाय उनमें रुचि लेते थे। शायद रस भी। कितनी बार ऐसा भी होता था कि हम ड्राइंगरूम में ही बैठा लिए जाते और कॉलेज की गतिविधियों पर, राजनीति पर, समाज पर, किसी भी विषय पर खुलकर बात होती। हँसी-मज़ाक़ तक हो जाता। एक दोस्त के पिताजी तो घुसते ही पूछते—क्या ख़बर है आज की? वहाँ जाओ तो आज का अख़बार देखकर जाना पड़ता। कभी-कभी दोस्तों की मम्मियाँ भी वहीं आकर बैठ जातीं। अपनी सब्ज़ी काटती रहतीं, बुनाई करती रहतीं और बातों में भी हिस्सेदारी करतीं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि मैं किसी दोस्त के यहाँ गया हूँ और दोस्त नहीं है तो भी मैं बाहर से ही लौटा नहीं दिया गया हूँ। अन्दर बुला लिया गया हूँ और ‘मम्मी’ से या ‘पापा’ से बातों में उलझ गया हूँ और फिर दोस्त आ गया है या नहीं आया है तो भी मुझे यह नहीं लगा है कि अपना चक्कर फालतू गया।
बेशक, ऐसा माहौल सारे दोस्तों के घर नहीं था। कुछ के ही यहाँ था। सच पूछो तो दो दोस्तों के घर जो अपेक्षाकृत सम्पन्न थे। एक के पिता डॉक्टर थे, दूसरे के रिटायर्ड इंजीनिअर। बाक़ी दोस्तों के पिताओं को या तो मैंने देखा ही नहीं था या जब भी देखा था, परेशान ही देखा था। पता नहीं किसलिए। एकाध ने तो मेरे ही सामने दोस्त को डाँट दिया था। पर इन दो दोस्तों के घर का माहौल मुझे बहुत अच्छा लगता था—और मैं सोचता था कि ऐसा माहौल हमारे घर में भी क्यों नहीं हो सकता!
हमारा घर तो ख़ानों में बँटा हुआ था। अस्पृश्यता की तरह। एक घर में जैसे तीन घर। मेहमानों के लिए और पिताजी के लिए बैठक थी। वहाँ की किसी व्यवस्था पर माँ का दख़ल नहीं था। छोटी से छोटी चीज़ के लिए एक जगह निश्चित थी। क़लम यहाँ तो क़लम यहाँ। चश्मा वहाँ तो चश्मा हमेशा वहाँ। सब कुछ अँधेरे में भी मिल जाता था। घड़ी में चाबी भरने तक का समय निश्चित था। मेरा कमरा, मेरा कमरा था और सारा कुछ जोड़-घटाने के बाद माँ के हिस्से में सिर्फ़ रसोई बचती थी। रसोई उसका साम्राज्य था। वहाँ जो भी रखा है…। उसी ने अपनी मर्ज़ी और सुविधा के हिसाब से। माँ अचार के मर्तबानों पर कपड़ा बाँधती थी और माचिस को हमेशा प्लास्टिक की ख़ाली थैली में रखती थी। मटके के परिंडे पर कोने में हाथ धोने के लिए लोटा और चमचमाता डुबका कील पर टँगा। मैं कभी रसोई में जाऊँगा भी तो माँ की सारी चकाचक व्यवस्था बिगाड़ आऊँगा। पिताजी का तो रसोई में जाने का सवाल ही नहीं उठता था! रसोई की पूरम्पार मालकिन माँ थी। वह वहीं मगन रहती थी। गुनगुनाती भी रहती हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
दोस्तों के घर की प्रेरणा ने उचकाया और एक दिन अपने घर की पुरातन व्यवस्था को मैं ताज़गी का एक स्पर्श-जैसा देने के षड्यंत्र में चुपचाप और अकेला लिप्त हो गया। किया फ़क़त इतना कि हर चीज़ को मुकर्रर जगह पर रखने का ध्यान रखते हुए बैठक को चमका दिया। पीतल का क़लमदान मिट्टी से रगड़ दिया, डिग्री लिए खड़े पिताजी की तस्वीर का काँच काग़ज़-पानी से साफ़ कर दिया, पंखे की पंखुरियों पर से गर्द हटाकर उन्हें गीले कपड़े से चमका दिया और दीवार घड़ी पर जड़ी पीतल की पत्तियों को ब्रशों से रगड़कर चमका दिया। अब सब कुछ एकदम नया जैसा लग रहा था। बीच में एक बार माँ ने आकर मेरी हरकतों को देखा और देखकर चुपचाप अपने कमरे में चली गई। अन्त में मैंने कबाड़े से एक गुलदान निकाला, उसे साफ़ किया और उसमें पानी भरकर बाहर से कुछ ताज़े फूल तोड़ लाया, फूलों को गुलदान में सजाया और गुलदान को दीवान के पास वाली छोटी मेज़ पर सजा दिया।
पिताजी ख़ुश हो जाएँगे।
पिताजी आए। उन्हें जैसे अपने कमरे में बेचैनी-सी महसूस हुई। चमकदार चीज़ों से चौंध-सी लगी। कुछ देर ख़ामोशी से एक-एक चीज़ को ध्यान से देखते रहे। किसी से कुछ बोले-चाले नहीं। चुपचाप कपड़े बदले, चाय पी और पीठ पर हाथ बांधे आधा घण्टा कमरे में चक्कर लगाते रहे। बीच में एक बार अख़बार उठाया, पढ़ना चालू किया, फिर रख दिया और फिर चक्कर लगाने लगे। भीतर आकर माँ से पूछा—राकेश कहाँ है? पता नहीं माँ ने क्या जवाब दिया। आख़िर उनसे रहा नहीं गया। बाहर का दरवाज़ा खोला। कमरे में आए। गुलदान उठाकर बाहर ले गए, फूल निकालकर गली में फेंके, गुलदान उलटकर पानी ख़ाली किया, दो-तीन बार उसे झटकारकर भीतर आकर गुलदान को कबाड़े की कोठरी में झन्न से फेंक दिया।
मैं कौन होता था उन्हें बतानेवाला कि उन्हें कैसे जीना चाहिए! और जबकि वह मुझे नहीं बता रहे थे! पर तब इतना समझने की उम्र नहीं थी। इस ‘झाल’ से मैं ज़रा भी विचलित नहीं हुआ। बाज़ नहीं आया। पल्ला झाड़ने पर राज़ी नहीं हुआ। मेरी तथाकथित सुरुचि तो पूरे घर को अपनी चपेट में लेने को कसमसा रही थी, मैं पिताजी की ‘सुविधा’ में विस्तार करने में अपनी सक्रिय भूमिका तलाश कर रहा था। आख़िर कुछ तो होगा जिससे वह ख़ुश हो सकते हों!
आजकल माँ-पिताजी आए हुए हैं। मेरे पास चार कमरों का सरकारी क्वार्टर है। बेडरूम के साथ लेट्रीन, बाथरूम अटैच है। कमोड पश्चिमी तरीक़े का है। डबल बेड पर कोयर फ़ोम के गद्दे हैं। उसमें माँ-पिताजी आराम से होंगे।
कहाँ जाएँ। दोनों बहुत अशक्त हो गए हैं। खाना खाने डाइनिंग रूम में आते हैं, टीवी देखने ड्राइंग रूम में। थोड़ा शाम को बाहर बग़ीचे में निकले तो निकले वर्ना वापस अपने कमरे में। मेरी पत्नी दोनों का पूरा ध्यान रखती है।
मेरा घर शायद उन्हें सारी सुविधाओं के बावजूद पसन्द न आता हो! बात-बात में मैं बच्चों से सलाह लेता हूँ। न भी लूँ, वे स्वयं देते हैं। कोई मुरव्वत नहीं करते।
“पापा! आप ये नीली शर्त मत पहना करो! आप पर बिलकुल सूट नहीं करती।” या “देखो न मम्मी, पापा ने आज फिर ढेर सारा तेल थोप लिया!”
हम सब एक-दूसरे की बातें शेयर करते हैं और एक-दूसरे को बिन माँगे सलाह देते हैं। एक-दूसरे की मूर्खताओं पर खुलकर हँसते हैं। माता-पिता के देवतुल्य होने का मिथ ध्वस्त हो चुका है। सब इंसान हैं। सबसे ग़लतियाँ हो सकती हैं।
रहन-सहन बदल गया है। रसोई में गैस है। खड़े-खड़े खाना बनता है। बच्चे मना करते-करते भी रसोई में जूते पहने-पहने घुस जाते हैं। बग़ैर हाथ धोए फ़्रिज खोलकर पानी पी लेते हैं। न परिंडा है न चौका, न डुबका न छानना, न सँकरा न अछूता। न पहली रोटी के लिए गाय है न आख़िरी रोटी के लिए कुत्ता! घर में जगह-जगह तरह-तरह की पेंटिंग लगी हैं। पिताजी को कुछ तो अश्लील तक लगती हों। अबूझ तो ज़रूर ही। बच्चों ने अपने कमरे में दीवार पर चित्रकारी कर रखी है। थोड़ी भी फ़ुर्सत पाते हैं तो ऊँची आवाज़ में डेक बजकर डांस करते हैं। मौज़ आती है तो उनके साथ हम भी।
माँ हँसती है। उसे कौतुक होता है। जैसे उसका बचपन लौट आता है। वह मेरे घर प्रसन्न रहती है। सदा की चुप रहनेवाली माँ बहू से दुनिया-ज़माने की बातें करती है। उसे सलाह देती है कि बाल कटा ले। चोटी-पट्टी की झंझट क्यों? कहती है—सलवार-कुरता पहन, जैसे आहूजा की बहू पहनती है। कहती है—मुझे एक दिन बाज़ार ले चल, मैं तुझे कलौंजी, सीकाकई, मुरदासिंगी, मुल्तानी मिट्टी, आवाँ हल्दी दिलवा दूँगी। निखर उठेगी। माँ अपने सारे राख-जीवन में ध्वस्त पड़ी चिंगारी बहू में जगाने की कोशिश कर रही है। वह बच्चों से भी बहुत लाड़ करती है। बच्चे उसके गाल की, बाँहों की झुर्रियाँ गिनते हैं, उसके बालों में बादाम के तेल की मालिश करते हैं और उसे कहानियाँ सुनाते हैं। ड्रेकुला और डायनासोर और फ़ैंटम आदि की। माँ शौक़ से सुनती है।
स्त्री की देह को कितनी सदियों तक हमने जागने नहीं दिया, और आत्मा को भी थपकियाँ देते रहे। माँ स्त्री के पश्चाताप का शिलालेख नहीं… सोलह सौ मीटर की दौड़ का लास्ट लैप है।
पिताजी लेकिन नहीं बदले। सम्वादहीनता किसी तरह नहीं टूटती। पानी भी चाहिए तो माँ को आवाज़ लगाते हैं। बच्चों से उनके मन में कुछ नहीं खिलता। क्या मेरे बच्चों को देखकर उन्हें मेरा बचपन याद आता होगा? पता नहीं। याद नहीं आता कभी उन्होंने मुझे हवा में उछाला या कंधे पर बिठाया हो! अपने ही बच्चों से लाड़ करना उन दिनों घटिया हरकत मानी जाती थी। गुमसुम ड्राइंग रूम में बैठे रहते हैं। मेरे कोई मिलने वाले आ गए तो चुपचाप उठकर धीरे-धीरे अपने कमरे में चले जाते हैं। कभी-कभी अपने ही हाथों से अपने पैर दबाते हैं। उन्हें मेरी शेविंग क्रीम पसन्द नहीं, दाढ़ी के साबुन की गोल बट्टी ही ठीक लगती है। मैं चाहता हूँ कि और कुछ नहीं तो हम राजनीति पर ही बात करें। होता लेकिन यह है कि तबियत कैसी है? ठीक है। दवा ली? हाँ। फिर लानी है? नहीं। बाज़ार जा रहा हूँ, कुछ लाऊँ? अपनी माँ से पूछ लो!
बार-बार लगता है कि पिता ख़ुश नहीं हैं, क्योंकि यह उनका घर नहीं, मेरा घर है।
लेकिन घर… या समय?
स्वयं प्रकाश की कहानी 'पार्टीशन'