‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’ से कविताएँ

स्वानुभूति

मैं लिखता हूँ
आपबीती पर कविता
जिसे पढ़ते ही
तुम तपाक से कह देते हो
कि कविता में कल्पनाओं को
कवि ने ठेल दिया है
सचमुच मेरी आपबीती
तुम्हारे लिए कल्पना ही है
भला शोषक कहाँ मानता है
कि उसने या उसके द्वारा
कभी कोई शोषण किया गया
चलो, एक काम करो
मेरे साथ चलो कुछ दिन
बिताओ
मेरे कल्पनालोक में
मैं तुम्हें दिखाता चलूँगा
अपना कल्पनालोक
बस एक शर्त है
बोलना मत
चुपचाप देखते, सुनते,
महसूसते रहना
वरना कल्पनाएँ
छोड़कर चली जाएँगी
मेरी कविताओं के साथ कहीं विचरने
और तुम रह आओगे
अपने अहम में डूबते-डुबाते
कि विश्वगुरु हो
सब कुछ जानते हो।

मेरा चयन

पिता ने
निब को पत्थर पर
घिसकर
एक क़लम बना
मेरे हाथों में थमायी⁠।

पिता ने
उसी लाल पत्थर पर
राँपी
घिसकर
मेरे हाथों में थमायी⁠।

मुझे
पढ़ना और चमड़ा काटना
दोनों सिखाया
इसके साथ ही
दोनों में से
कोई एक रास्ता
चुनने का विकल्प दिया
और कहा
‘ख़ुद तुम्हें ही चुनना है
इन दोनों में से कोई एक’

मैं आज क़लम को
राँपी की तरह चला रहा हूँ।

कौन जात हो

उसे लगा
कि मैं ऊँची जात का हूँ
मारे उत्सुकता के
वह पूछ बैठा
कौन जात हो
मेरे लिए तो
यह प्रश्न सामान्य था
रोज़ झेलता आया हूँ,
जवाब दिया मैंने
चमार!
यह सुनकर
उसका मुँह कसैला हो उठा
मैं ज़ोर से चिल्लाया
थूँक मत
निगल साले।

पाय लागी हुज़ूर

वह दलित है
उसे महादलित भी कह सकते हो
जब ज़रूरत होती है
उसे आधी रात बुला भेजते हो
जचगी कराने अपने घर,
जिसे सम्पन्न कराने पूरे गाँव में
वह अकेली ही हुनरमन्द है⁠।
सधे हुए हाथों से तुम्हारे घरों में
जचगी कराने के बाद भी
इन सब जगहों पर वह रहती है अछूत ही,
इसके बावजूद उसे कोई
शिकन नहीं आती
यह काम करना उसकी मजबूरी है
उसके साथ न केवल तुम
उसके अपने भी ठीक से व्यवहार नहीं करते
यह देख मन में टीस उठती है
उसे न काम का सम्मान मिला है
न उसके श्रम का उचित मूल्य
उसके जचगी कराये बच्चे
कुछ ही माह बाद
मूतासूत्र पहन लेते हैं
तो कुछ उसे दुत्कार निकल जाते हैं
उसे बन्दगी में झुक कहना ही पड़ता है
हूल जोहार!
घणी खम्मा अन्नदाता!

पाय लागी हुज़ूर!
पाय लागी महाराज!

ऐसे पाँवों को
कोई तोड़ क्यों नहीं देता।

डर

मेरी दादी के पास
एक चरखा था
जिस पर कातती थी वह
कम्बल केन्द्र से लाकर ऊन
एक-दो दिन में
ऊन की कुकड़ियाँ बना
वापस जमा करा वह
बदले में पाती थी
गिनती के पैसों में अपनी मज़दूरी

मैंने माँ को
कभी चरखा चलाते नहीं देखा
…वैसे ही चरखे पर
जैसा दादी के पास था
जैसा कि मेरी किताब के पहले पन्ने पर छपे चित्र में
एक बूढ़े को बैठे देखा था
चरखा चलाते हुए मैंने,
बाद में पता चला
कि वो बूढ़ा ही गांधी था!

आजकल
महँगे कपड़ेधारी एक अधेड़ विदूषक को
बैठा देखता हूँ चरखा चलाने का
अभिनय करते एक विज्ञापन में
तो अनायास काँप जाता हूँ
इस भय से
कि कहीं खादी पोलिएस्टर में तब्दील ना हो जाए
वरना मेरी खड्डी बन्द हो जाएगी

चलो तुम दूर हटो
यह चरखा,
यह खड्डी
सिर्फ़ हमारी है।

'इस देश से थोड़ी-सी ख़ुशी और थोड़ा-सा आत्मसम्मान चाहा था'

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असंगघोष
(जन्म: 29 अक्टूबर 1962) सुपरिचित हिन्दी कवि व लेखक।