ललेश्वरी

बर्फ़ का सीना चीरकर उगे चिनार के नीचे बैठकर आग का कोई गीत गाती स्त्री सदियों की बर्फ़ को पिघला रही है

उसकी ज़िद, उसका साहस और उस पर अट्ठहास करते ठहाकों को चुप कराने वाली उसकी आवाज़, उसमें योगदान कर रहे हैं

आत्मा में जमे डर की कँपकँपी बह रही है
ठिठुरी हुई पितृसत्ता की नग्नता से धुआँ उठ रहा है
आँखों में उगे आँसू पेड़ बन गए हैं

मेरे वजूद को चुनौती देता उसका साहस,
मेरी ही रगों में विचार की तरह दौड़ जाता है

विचारों की दौड़ सभ्यता की आँख होती है मेरी दोस्त
उसका विस्तार तय करता है दौड़
वे विचार-हत्या से पहले आँखों की हत्या ज़रूरी मानते हैं
क्योंकि आँख-हत्या विचार-क्षेत्र की हत्या है।

उसके वजूद की वादियों में बहता ख़ून
मेरी चेतना को बर्फ़ की सिल्लियों पर घसीटता है
अवचेतन में पहुँची मेरी चेतना में सैनिकों के बूटों से रौंदी आदिम मनुष्यता की सिसकारी,
बलात्कृत चीख़ें, और
बारूद से ज़ख़्मी चिनारों से बहता ख़ून,
हिमालय की बर्फ़ के मानिंद जमे हुए हैं।
हमारे पुरखों की ज़ख़्मी पीठ,
कंधों पर पड़े निशान,
माँओं के फेफड़े में जमा काला धुआँ, और
प्रेम में धोखा खायी लड़कियाँ
ये सभी तुम्हारे और मेरे अवचेतन से सम्वाद की तरह हैं

बर्फ़ में दबी ललेश्वरी की आवाज़
रेगिस्तान की रेत में
रसोई की लपटों में,
कुँए और कुण्ड के पानी में
खेजड़ी की डाली से लटके फंदों में
और उन-उन जगहों पर मुझे सुनायी देती है
जहाँ स्त्री की आत्मा
धूल में समायी गई
जलायी, भिगोयी और मार दी गई।

स्त्री की आत्मा प्रचलित प्रतिमानों से परे थी।

तुम्हारा एहसास रात को फिर उदास कर रहा है

नीनाण के बाद बारिश से भरपूर, बाजरे ने
सन्नाटा ओढ़ लिया है
खेजड़ी के लूंग को हवा की थपकियों ने
डालियों में सो जाने पर मजबूर कर दिया है
कँपकँपाती सर्दी को अंधेरे ने कम्बल ओढ़ा दिया है
चीरचाटी कहीं दूर अंधेर को चीर रही है

ऐसे में क्यों
ऊँट से सद्य जुते खेत से आ रही महक-सा
तुम्हारा एहसास आज फिर रात को उदास कर रहा है

ओ मरुस्थल की मृगमरीचिका!
मालूम होते हुए भी
कि यह कच्चे-सूखे फंकी युक्त,
कभी न ख़त्म होने वाले ग्वार के खेत से गुज़रना है
ऐसे में क्यों
तुम्हारा एहसास आज फिर रात को उदास कर रहा है!

मौत के बाद

मौत के बाद
मेरी पहली और आख़िरी इच्छा की ख़ातिर
मुझे दफ़ना देना मेरी किताबों के बीच
ताकि श्मशान में बैठकर
मुर्दों को भी पढ़ा सकूँ।

रेश्मा के लिए

गाड़े पर बैठकर ऊँट को हाँकते दादा गा रहे हैं
सुबह का कोई गीत
रेगिस्तानी धूल के ज़र्रे-ज़र्रे से उठती आवाज़
मुझे नहला रही है
रेश्मा दादा की तरह गाती हैं

आधे पेट चक्की पीसती दादी ने
पाटों के बीच पीस दिया है अपने जीवन को
रेश्मा दादी की चक्की की तरह गाती हैं

मरुस्थल की धूल ने एक दिन मुझे बताया था—
अनगिनत रेश्मा रेगिस्तान में आज भी दफ़्न हैं
तेज़ हवा का उन्हें आज भी इंतज़ार है!

इस देश से थोड़ी-सी खुशी और थोड़ा-सा आत्म-सम्मान चाहा था

हमने दुनिया के लिए छड़ मोड़कर पुल बनाए,
जिस पर हम कभी नहीं चलने वाले थे
उससे आती हमारे पसीने की गंध आज भी मादक बना देती है

हमारे हिस्से की रोटी और पानी कुत्तों को फेंक दिया गया
हमारे हिस्से की चप्पलों से किसी ने अपनी ठोकरों को मज़बूत किया
हमारे हिस्से के कपड़ों से किसी ने होली खेली
हमारे हिस्से की किताबों को किसी ने रद्दी में बेचा
हमारे हिस्से के प्यार से किसी ने ऐय्याशी की

अब हमें रोटी, चप्पल, कपड़े, किताब और प्यार एक साथ चाहिए
हम लड़े,
लड़े तो,
पिछवाड़े में पैट्रोल और रोड डाली गई
घर खरपतवार की राख बना दिए गए।

हमने इस देश से थोड़ी-सी ख़ुशी और थोड़ा-सा आत्म-सम्मान ही तो चाहा था।

वेश्या की सन्तान

टाटा सोशल स्टडीज़ के अनुसार भारत में पचास लाख वेश्या-बच्चे हैं। उन बच्चों को समर्पित।

तुम्हारे लिए यह गाली हो सकती है
पर बाप के नाम पर वह
जाति पूछे किसी चमार-सा चुप है

सभ्यता की ऊपरी कुर्सी पर बैठे ढोंगियों!

किसी रोज़ तुम सभ्यों को नंगा कर
वह अपने बाप का नाम ज़रूर पूछेगा

तब गोमूत्र-पूत तुम्हारी पूरी सभ्यता पर
गोबर पुत जाएगा।

जयप्रकाश लीलवान की कविता 'क्या क्या मारोगे?'

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सुरेश जिनागल
(जन्म: 1995, चूरू, राजस्थान) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मारवाड़ी लोकगीतों पर शोधरत। कविता के क्षेत्र में नये।