Poems: Ekta Prakash

डर

जब आप किसी अपने को खोने से डरते हैं
भय आपको खाता है,
ख़ामोशी आकर चुपके-से
ओठों को सील जाती है,
गूँगा बनना आपके लिए
उस वक़्त बेहतर होता है।

जब आप किसी अपने को खोने से डरते हैं
आप सवाल करना बन्द कर देते हैं,
ख़ुद ही जवाब ढूँढते
चक्रव्यूह भेदते हैं,
हल होता कि आप कुछ सुनें ना
अपने को बहरा बना लें।

जब आप किसी अपने को खोने से डरते हैं
आप देखकर भी
अनजान बने रहते हैं,
तिरछी नज़रों से सब कुछ दिखने के बावजूद
नज़रों को धोखा होने का
भम्र पालते हैं।

जब आप किसी को खोने से डरते हैं
मन की बातें मन में ही जगह पाती हैं,
मन कुछ कहता है, ज़बान कुछ और,
मन को बांधने की कला में
हमें महारथ हासिल होती है।

जब आप किसी को खोने से डरते हैं
आप दिल की बातों में आ जाते हैं,
‘हमेशा दिल की सुनो, दिल की करो’
राग अलापते हैं।

एक समय ऐसा भी आता है-
आप दिल की जगह दिमाग़ की सुनते हो,
दिमाग़ की ख़ाली दराज़ों में
दिल को छुपा
हर बात को दिल से लगाते हो,
तब आप सब कुछ खो देते हो।

क्या हम आज़ाद हैं

अगर मैं ज़ोर-ज़ोर
चिल्ला-चिल्ला
गला फाड़ रोती,
अगर मैं ज़ोर-ज़ोर
ठहाके लगाकर हँसती

अगर मैं ज़ोर-ज़ोर
आवाज़ ऊँची कर कुछ बोल पाती,
अगर मैं तेज़-तेज़ क़दमों से
अकेली राहों में
सुरक्षित चल पाती

अगर मैं तेज़-तेज़
दौड़ लगा सरपट घर
लौट आती,
अगर मैं तेज़-तेज़ धड़कती
धड़कनों को
उस समय रोक पाती

गुमटियों पर कश खींचते लोगों
काॅलेज के गेट पर खड़े
‘यूथ’ की घूरती निगाहों से
उस समय मैं, किसी आशंका,
बेचैनी, सवालों के समन्दर
से निकल पाती,
और फिर
सारी बातों को दरकिनार रख
उन आलू की फाँकों जैसी आँखों
को तशतरी में सजाती!
ऐसा करने के लिए
क्या हम आज़ाद हैं?

यह पूछने भर
अगर मैं लगा पाती नारा
जब तक साँस
गले से चीख़ निकलने भर
हाय-हाय! मुर्दाबाद!

और अन्त में,
ज़ोर-ज़ोर, तेज़-तेज़
हाय-हाय करते, चलते,
घिसटते, रंगियाते, सरकते
चलती जोंक की तरह
वही ज़मीन, वही नमी
धरती को कुरेदती
अपने से पूछती
और फिर हथौड़े से
कर रही होती
आर्डर-आर्डर…!

चोट पर चोट से
निकलती मर्मभेदी आवाज़
चीख़ती और जा पहुँचती
उसी स्त्री के पास
जो खड़ी हैं आँखों पर
काली पट्टी बाँधे
हाथों में तराजू लटकाए
स्लोगन चिपकाए
क़ानून अंधा होता है।

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एकता प्रकाश
एम.ए., पटना विश्वविद्यालय, पटना, अनिसाबाद (बिहार)

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