आजकल

1

रेंग रहा है यह वक़्त
मेरे जिस्म पर कीड़े की तरह
अपनी हथेलियों से लगातार
मैं इसे झटकने की कोशिश कर रहा हूँ…

2

वृक्ष की शाख़ से टूटकर गिरे पीले पत्ते
जगह-जगह इकट्ठे हो गए हैं
हाँ, ये वही पत्ते हैं
जो हवा के दबाव को झेलने में असमर्थ रहे।

3

मैं लौटना चाहता हूँ
अपनी पुरानी कमीज़ में बिजूका की तरह
यह जानते हुए भी कि
उस पर उग आए हैं फफूँद!

4

मैं ढूँढ रहा हूँ
अपने आसपास वह बच्चा
जो रोते-बिलखते लौटता है अपनी माँ के पास
कहीं से फटकारे जाने के बाद
वह नहीं मिल रहा है कहीं
आपने उसे देखा है क्या?

5

पंछी का एक जोड़ा
शाम के इस पहर में
अमलतास की एक शाख़ पर मैथुन में लीन है
कैमरे की लेंस को उस तरफ़ ले जाते हुए
भय, मृत्यु और अवसाद के बीच
क़ैद करना चाहता हूँ
सृजन का यह अद्भुत क्षण।

6

पलकें मूँदते ही
सबसे पहला ख़याल सपनों का आता है
नींद बार-बार टूटती है
मानों आसपास हर तरफ़, हर पल
कोई अलार्म बज रहा हो…

7

फ़ोन के दूसरी तरफ से
रोज़ एक ही सवाल दुहराती हैं माँ
मैं अनमने ढंग से उसका जवाब देता हूँ
मेरा चरित्र देश की सत्ता जैसा हो गया है
मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है।

वे लौट रहे हैं मानों लौट रहीं हों हताश चींटियाँ

सरकारी घोषणाओं पर नहीं
मीडिया की सुर्ख़ियों पर भी नहीं
उन्हें भरोसा है तो सिर्फ़ अपने पैरों पर
जिसके सहारे
विकल्पहीनता की इस घड़ी में
वे पाट लेना चाहते हैं
मुश्किल दूरी

उन्हें विश्वास है
एक दिशा में लगातार चलने के बाद
एक मोड़ आएगा
जहाँ से सड़क को छोड़ते ही
उनका हाथ थाम लेंगीं पगडण्डियाँ

उन्हें मालूम है
इतनी बड़ी आबादी वाले देश में
उन जैसे लोग
सरकारी हिसाब-किताब से बाहर की चीज़ हैं

महामारी के इस साए में
जब पूरा शहर
अपनी-अपनी बालकनी से झाँक रहा है

जब निलम्बित हो चुका है ईश्वर
और स्थगित हो चुकी हैं तमाम प्रार्थनाएँ

जब हर आदमी सन्दिग्ध है
और बन्द पड़ी हैं सभी फ़ैक्ट्रियाँ

वे भूखे मरने से पहले
लौट जाना चाहते हैं
अपने गाँव-घर

वे लौट रहे हैं
मानों लौट रहीं हों हताश चींटियाँ…

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली | इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408

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