मृत्यु

नहीं आना चाहिए उसे जिस तरह
वह आयी है उस तरह
जीवन की अनुपस्थिति में
निश्चित है आना उसका,
पर इस अनिश्चित ढलते समय में
वह आयी है आतातायी की तरह
सब कुछ उजाड़ते हुए

अपनों के स्पर्श से हीन
प्लॉस्टिक बैग में लिपटी
ऐम्बुलेंस की डिक्कियों में
देह से अलग होने की प्रतीक्षा में
कितनी उदास पड़ी है वह

दाह की लकड़ी से विलग
विद्युत शवदाह गृह के बाहर
अपनी अंतिम यात्रा की प्रतीक्षा में
कितनी निरीह लगती है
जब शवदाह-गृह का कर्मचारी
चिल्लाता है—अब टोकन नम्बर
आठ की बारी है…

नहीं आते सपने इन दिनों

नहीं आते सपने इन दिनों नींद में
अजीब-अजीब-सी आवाज़ें आती हैं
मोबाइल की रिंगटोन
जो बजती ही रहती है लगातार
फ़ोन चिपके रहते हैं हाथों से
नींद में भी बड़बड़ाते हुए,
करवट बदलते ही सुनायी देती है
एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़

किसी की आर्त पुकार
मेरे दाएँ बाज़ू के कंधे से चिपककर बैठ गई है—
“भइया प्लीज़ कुछ करिए!”

लाख कोशिश पर भी नहीं हट रही वो आवाज़
ठहर गयी है उनकी भीगी आँखें मेरी नींद में
वे हॉस्पिटल के कॉरिडोरों में नहीं
मेरे सपने में चहलक़दमी कर रही हैं

नींद में ही सुनायी देती है
किसी के लड़ने की आवाज़
पुरुष आवाज़ है कोई
जो तीव्र होते-होते अंत में
गिड़गिड़ाने लगता है
किसी के सामने जुड़े हैं उसके हाथ
आँखें लहू से भरी हुईं,
कहीं दूर आसमान में बिजली कड़कती है
बहुत तेज़ बारिश होने वाली है शायद
पर मेरी नाक मिट्टी की सौंधी महक से नहीं
जलती चिताओं के धुएँ से भर गयी है
धुआँ इतना गाढ़ा है कि साँस नहीं आ रही…

फिर से कोई खटखटाने लगता है नींद में
यह बहुत पास की आवाज़ है, एकदम पास की
कोशिश करती हूँ पहचानने की पर नहीं जान पाती
बेचैनी में खुल जाती है आँख
पलटकर देखती हूँ बग़ल में लेटे साथी पुरूष को
जो फ़ोन पर बता रहा किसी को रात के इस पहर
बर्फ़ की सिल्ली मिलने की सही जगह…

अंधेरा एकाएक और काला हो उठता है
देह और ठण्डी…

लौटना

लौटना
जैसे लौट आती है छाया
अपनी ही देह में
धूप के चले जाने पर,
जैसे लौटती है भोर
अंधेरी रात के बीत जाने पर!

लौटना
जैसे झर चुकी डालियों पर
लौटता है बसंत,
लौटती हैं लहरें
अपने ही किनारों पर
बार-बार, हर बार!

लौटना
जैसे गुम हुई गेंद के
मिल जाने पर
लौटती है मुस्कान
नन्हें बच्चे के मुख पर,
उन स्मृतियों की तरह लौटना
जो लौटती हैं पुराने घर की
गीली दीवारों पर!

लौटना
जैसे लौट आता है आँसू
मन के भर आने पर,
लौटती है नदी
अपने ही भीतर,
लौटना
जैसे प्रतीक्षा करती
आँखों में
लौट आता है सुकून…

सीमा सिंह की कविता 'कितनी कम जगहें हैं प्रेम के लिए'

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