‘आदिवासी नहीं नाचेंगे’ झारखंड की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियाँ हैं जो एक तरफ़ तो अपने जीवन्त किरदारों के कारण पाठक के दिल में घर कर लेती हैं, और दूसरी तरफ़ वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ की ऐसी तस्वीर दिखाती हैं, जो वहाँ के मूल वासियों के प्रति हमारी मानसिकता और व्यवहार पर पुनर्विचार करने को मजबूर करती हैं। झारखंड के आदिवासियों के प्रति लेखक की गहरी संवेदना और वहाँ की ज़मीन से जुड़ाव हर कहानी में दिखता है।

किताब के लेखक हाँसदा सौभेन्द्र शेखर और अनुवादक रश्मि भारद्वाज हैं। किताब राजपाल एन्ड संस से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है इसी किताब से एक कहानी ‘प्रवास का महीना’—

प्रवास का महीना

नवम्बर के आते ही, सन्थाल स्त्री-पुरुष और बच्चे पहाड़ों के अपने गाँवों और सन्थाल परगना के दूरस्थ इलाक़ों से निकलकर—ज़िला मुख्यालय के स्टेशन पहुँचते हैं। ये सन्थाल—पूरा गाँव, पूरी बिरादरी—एक लम्बा, सर्पीला जुलूस निकालते हैं, जब वे अपनी ज़मीन, अपने खेतों को छोड़कर पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले में स्थित ‘नामाल’ और वहाँ के धान के खेतों में पहुँचने के लिए ट्रेन लेने आते हैं।

बीस साल की तालामई किस्कू उन तैंतालिस लोगों के समूह का हिस्सा है जो आज रात यात्रा करने वाले हैं। उसके साथ, उसके माता-पिता और दो बहनों में से एक बहन है। उसका लगभग पूरा गाँव—उसके तीन भाइयों और एक भाभी सहित, सब बहुत पहले ही बर्धमान के लिए निकल गए थे।

तालामई तीन लड़कियों और तीन लड़कों वाले परिवार की दूसरी लड़की है। उसका नाम कल्पना की कमी को दर्शाता है। वह बीच की लड़की है—ताला—बीच; मई—लड़की। तालामई का परिवार ईसाई है। कोई भी यह उम्मीद करेगा कि तालामई के माता-पिता इतने पढ़े-लिखे होंगे कि अपनी बेटी के लिए बढ़िया, रचनात्मक नाम सोच सकते होंगे। मिशनरियों द्वारा शिक्षा दिए जाने के वायदों के बावजूद भी, तालामई के माता-पिता कभी स्कूल नहीं जा सके, और न ही तालामई जा सकी। वे या तो कोयला बटोरते थे, या बर्धमान के खेतों में काम करते थे।

तालामई अपने समूह से अलग हो गयी। वह एक आदमी की ओर आकर्षित हुई। वह गोरा जवान, एक दिकू और रेलवे सुरक्षा बल का सैनिक है। अपने हाथ में एक ब्रेड पकौड़ा लिये, वह उसे अपने पीछे आने का इशारा करता है, और कोने में जाकर गुम हो जाता है। तालामई असमंजस में है कि उसे जाना चाहिए कि नहीं, और फिर वह जाने का निर्णय करती है। आख़िरकार, वह भोजन का आमन्त्रण दे रहा है। और वह भूखी है।

अभी रात के 10:30 बजे हैं और ट्रेन के आने में अभी भी दो घंटे हैं।

“क्या तुम भूखी हो?” जवान तालामई को कोने में बुलाता है।

“तुम्हें खाना चाहिए?” वह पुलिस क्वार्टर के सामने खड़ा है।

“हाँ”, तालामई ने उत्तर दिया।

“तुम्हें पैसे चाहिए?”

“हाँ।”

“क्या तुम मेरा कुछ काम करोगी?”

तालामई जानती है कि वह किस काम के बारे में बात कर रहा है। उसने यह काम कोयला रोड पर कई बार किया है, जहाँ कई सन्थाल स्त्रियाँ और लड़कियाँ ट्रक से कोयला चुराती हैं। वह बहुत-सी औरतों को जानती है, जो यह काम ट्रक ड्राइवरों और अन्य आदमियों के साथ करती हैं। और वह जानती है कि नामाल के रास्ते में, सन्थाल औरतें यह काम भोजन और पैसों के लिए रेलवे स्टेशन पर भी करती हैं।

“हाँ”, तालामई कहती है, और अँधेरे में पुलिसवाले के पीछे चलती पुलिसवालों के कमरे के पीछे की पक्की जगह पर आती है।

काम बहुत समय नहीं लेता। पुलिसवाला तैयार है। वह ज़मीन पर एक गमछा बिछाता है और अपनी पतलून उतार देता है। उसके पास कॉन्डोम पहनने का समय भी है। तालामई को भी अपने सारे कपड़े नहीं उतारने हैं। वह बस अपनी लुंगी और साया उतारती है—वह दस्तूर जानती है। पुलिसवाला उसके नितम्ब दबोचता है, उन्हें उठाकर, तालामई को अपने हिसाब से जमाते हुए, उसके साथ सम्भोग करता है। अपना सारा भार उस पर डालते हुए दोलन आरम्भ कर, वह घुरघुराने की ध्वनि निकालता है। तालामई चुपचाप लेटी रहकर, हल्के प्रकाश में पुलिसवाले के चेहरे की बदलती मुखाकृति देखती रहती है। कभी उसका मुँह ऐंठ जाता है, कभी वह मुस्कुरा देता है। एक बार वह कहता है, “साली, तुम सन्थाल औरतें सिर्फ़ इस काम के लिए ही बनी हो। तुम अच्छी हो!”

तालामई कुछ नहीं कहती है, कुछ नहीं करती है। एक समय तो वह उसके ब्लाउज़ के अन्दर से उसके स्तनों को निचोड़ता है। वह उन्हें काटता है और उसके निपल्स को चूसता है। इससे दर्द होता है।

“चिल्लाओ मत,” आदमी हाँफता है। “एक शब्द भी मत कहो। इससे तकलीफ़ नहीं होगी।”

तालामई इस बात का ध्यान रखती है कि वह चीख़े या झिझके भी नहीं। वह नियम जानती है। उसे कुछ नहीं करना है, सिर्फ़ अपने पैर फैलाने हैं और चुपचाप लेटना है। वह जानती है कि सब कुछ आदमी के द्वारा ही किया जाता है। वह सिर्फ़ लेटती है—बिना किसी सक्रियता के, बिना कुछ सोचे हुए, बिना पलकें झपकाए हुए—बिलकुल इस पत्थर की ज़मीन की तरह ठण्डी होकर, जिसे वह गमछे के पतले कपड़े के अन्दर महसूस कर पा रही है; और एक निरपेक्ष मिट्टी के कटोरे की तरह जिस पर काले बादल ख़ुद को ख़ाली कर जाते हैं।

दस मिनट से भी कम समय में काम ख़त्म हो गया।

पुलिसवाला उठा और तालामई को उठने में मदद की। उसने इस्तेमाल किया हुआ कॉन्डोम फेंककर अपने कपड़े पहन लिए। फिर उसने तालामई को दो ठण्डे ब्रेड पकौड़े और पचास रुपये का नोट थमाया और चला गया। उसने अपना साया और लुंगी बाँधी, पचास रुपये का नोट ब्लाउज़ में खोंसा, दोनों ब्रेड पकौड़े खाए और अपने समूह में वापस लौट गयी।

कमल कुमार ताँती की कविता 'जिस दिन हमने अपना देश खोया'

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हाँसदा सौभेन्द्र शेखर
हाँसदा सौभेन्द्र शेखर का जन्म, लालन-पालन व शिक्षा झारखंड में हुई। उनकी प्रथम पुस्तक, द मिस्टीरियस एलमेन्ट ऑफ़ रूपी बास्के, को साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2015, और म्यूज़ इंडिया-सतीश वर्मा यंग राइटर अवॉर्ड 2015 से पुरस्कृत किया गया; और द हिन्दू प्राईज़ 2014, क्रॉसवर्ड बुक अवॉर्ड 2014, व इन्टरनेशनल डबलिन लिटररी अवॉर्ड 2016 के लिये नामित किया गया। आदिवासी नहीं नाचेंगे (द आदिवासी विल नॉट डान्स) उनकी दूसरी पुस्तक है। वे पेशे से चिकित्सक हैं और झारखंड में कार्यरत हैं।

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