तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों
पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि
ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाइयाँ
और पंखा बनाते टपकता है
तुम्हारे करियाये देह से टप… टप… पसीना…!

क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन
तब तक कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी
तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर?

जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में?

इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नज़र
वहीं तक समझती हो अपनी दुनिया
जबकि तुम नहीं जानतीं कि तुम्हारी दुनिया जैसी
कई-कई दुनियाएँ शामिल हैं इस दुनिया में

नहीं जानतीं
कि किन हाथों से गुज़रती
तुम्हारी चीज़ें पहुँच जाती हैं दिल्ली
जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी!

निर्मला पुतुल की कविता 'अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री'

Book by Nirmala Putul:

Previous articleओछा है मेरा प्यार
Next article‘वर्षा में भीगकर’ से कविताएँ
निर्मला पुतुल
निर्मला पुतुल (जन्मः 6 मार्च 1972) बहुचर्चित संताली लेखिका, कवयित्री और सोशल एक्टिविस्स्ट हैं। दुमका, संताल परगना (झारखंड) के दुधानी कुरुवा गांव में जन्मी निर्मला पुतुल हिंदी कविता में एक परिचित आदिवासी नाम है। निर्मला ने राजनीतिशास्त्र में ऑनर्स और नर्सिंग में डिप्लोमा किया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here