सभी इंसान एक जैसे होते हैं,
सभी के रगों में ख़ून दौड़ता है,
मेरी इस गलतफ़हमी का दम घोंट दिया
तुम्हारे बाएँ हाथ की मसरूफ़ियत के बीच
तुम्हारे दाएँ हाथ से उठते धुएँ ने।

कुछ इंसानी रगों में दौड़ता है
असमानता का भाव
अपने ही अंगों के प्रति इस क़दर
कि जिस्म का मुकुट लहूलुहान हो जाता है
पर पैर जन्नत के रास्ते तलाशना नहीं छोड़ते,
तुम्हारे पैर जिनके बेपरवाह, ठोस क़दम
तुम्हारे सिर से बहते ख़ून से शृंगार कर
कुचलते जाते हैं तुम्हारी ही छाती को
जिसपर बड़े-बड़े अक्षरों में तुमने लिख रखा है
कि सिर से लेकर पाँव तक
ये जिस्म तुम्हारा है।

अगर ये दावा सच होता
तो मुकुट और दाएँ हाथ के अस्तित्व मिटने पर
तुम्हारा जिस्म अपने अस्तित्व को लेकर
आश्वस्त नहीं होता,
क्योंकि जिस्म सिर्फ़ एक हड्डियों का ढाँचा नहीं होता।

Previous articleगीली मिट्टी पर मेरे पाँव
Next articleअनरेपोर्टेड किलिंग

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here